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नवमोध्यायः
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पवन का विजय करते हुये उसने मनपर विजय प्राप्त करली है, मनोविजयो योगी मनको ग्रहां वहाँ न हीं भटकाकर एक पदार्थमे लगा कर ध्यान जमा सकता हैं । ऐसा कहने पर तो ग्रन्थकार पूछते हैं कि कि वह उत्कृष्ट पवनका विजय करना भला किस कारण से उत्पन्न होगा ? बताओ । इस पर यदि तुम यों कहो कि योगाभ्यासी गुरुके उपदिष्ट किये • गये अभ्यास मार्गकी अतिशय वृद्धि होजानेसे पवनोंके ऊपर विजय प्राप्त कर लिया जाता हैं । कई दिनों और महीनों तक हठयोग समाधि लगाकर मृतकके समान बैठे या पड़े रह सकते हैं ।
आचार्य कहते है कि यों तो नही कहना, क्योंकि उत्तम संहननोंसे रहित हो रहें पुरुष करके उस परम पवन का अभ्यास या विजय नहीं किया जासकता हैं जो होन सहनन पुरुष यदि पवनका विजय करेगा या दीर्घ कालतक प्राणायाम करेगा तो शरीर पीडा उत्पन्न होजाने के कारण मानसिक व्यथा अनुसार घोर आर्तध्यान होजानेका प्रसंग आजावेगा । हठरूपेण मनोविजय होकर आत्माका शुभ ध्यान नहीं बन पायगा ।
एक बात यह भी हैं कि मस्तक कपोलमे चढाकर पवनको धारनेमे ही उसका चित्त एकाग्र लगा रहेगा, ऐसी दशा होजानेपर दूसरे ध्येय पदार्थमे मनकी प्रवृत्ति लगना नहीं बन सकता है, एक ही बार में मनके दोनों व्यापार हो जानेका योग नहीं हैं।
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'युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिंगं
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एक ही बार में दो आदि ज्ञानों का नहीं उपजवा ही मनका ज्ञापक हेतु हैं | पापड, कचोडी, पुरानापान, खाते समय जो पांचों इन्द्रियों द्वारा एक साथ पांचों ज्ञान हो रहे प्रतीत होते है वहाँ भी शीघ्र क्रमसे उत्पन्न होजाने के कारण घुगपत्यका भ्रम हैं, वस्तुतः वे क्रमसे हुये हैं । नैयायिक, जैन, बौद्ध, वैशेषिक सभी दार्शनिक एक समयमै एक ही ज्ञानका उपजना स्वीकार करते हैं । !! तद्यौगपद्यलिङगत्वाच्च न मनसः न्यायसूत्र दुसरा अध्याय प्रथम आन्हिक चोवीसवा सूत्र हैं । तथा " प्रयत्नायोगपद्याज् ज्ञानायौगपद्याच्चकम् " वैशेषिका सूत्र तीसरा अध्याय दूसरा आन्हिक तीसरा सूत्र । इन प्रमाणो से सिद्ध है कि एक ही बब दो उपयोग नही कर सकता है, कतिपय ज्ञानों के एक साथ उपज जाये या दो चार जयत्वों के समय में ही उपज जाने करके मनकी व्यवस्था नहीं हो पाती है । किन्तु वैशेषिक सूत्र अनुसार प्रयत्नोंका युगपत्पना ही होनेसे और ज्ञानों का एक साथ उपजना नहीं होने से ही प्रत्येक जीवित शरीरमै एक एक मनकी व्यवस्था हो रहीं हैं । नृष्व
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