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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
प्रोक्तं संहननं यस्य भवेदुत्तम मिष्यते।
तस्य ध्यानं परं मुक्तिकारणं नेतरस्य तत् ॥ ७॥
जिस संसारी आत्माके बढिया कहे गये पहिले तीन संहनन होंगे वह आत्मा उत्तम संहननवाला अभीष्ट किया गया है। और उसी आत्मा के मुक्ति का कारण हो रहा उत्कृष्ट ध्यान हो सकेगा। अन्य आत्माके या प्रकृति, महान्, क्षणिकचित्त, अद्वत ब्रह्म, चित्र अद्वैत, आदिको ध्यातापन और वह ध्यान करना नहीं बनपाता है । ध्यान करते समय पहिली अध्यान अवस्था को या अन्य ध्यान दशाको छोडना पड़ता है और नवीन ध्यान पर्याय को पुरुषार्थद्वारा उपजाना पड़ता है । तथा ध्याता आत्मा परिणामो होकर स्थिर रहता है । मूर्त आत्मा मूर्तमनके द्वारा मूर्त, अमूर्त, पदार्थों का चिंतन करता रहता है । ध्यान अवस्थामे निमग्न होकर कतिपय मुनिजन शृगाली, व्याघ्री आदि द्वारा भक्षण किये जाने को कष्ट वेदनाओं का अनुभव भी नहीं करपाते हैं । " नमोस्तु तेम्यो मुनिवर्येभ्य:"।
आद्यं संहननं त्रयमुत्तमसंहननं सोयमुत्तमसंहननस्तस्य ध्यानं न पुनरनुत्तमसंहननस्य तस्य ध्यानशक्त्यभावात् । विहितपवनविजयस्यानुत्तमसंहननस्यापि ध्यान सामर्थ्य मनोविजयप्राप्तेरिति चेत्, स परपवनविजयः कुतः ? गुरूपदिष्टाभ्यासातिशयादिति चेन्न,तदभ्यासस्यवानुत्तमसंहननेन विधातुमशक्यत्वात् । तदभ्यासे पीडोत्पत्तरात ध्यानप्रसंगाच्च । पवनधारणायामेवावहितमनसोऽन्यद्ध्येये प्रवृत्त्यनुपपतेः सकृन्मनसो व्यापारद्वितयायोगात् ज्ञानयोगपद्यप्रयत्नयोगपद्याभ्यां मनसोऽव्यवस्थितेः ।
_ नामकर्मको उत्तर प्रकृति होरहे छह भेदवाले संहनन कर्म के आदि में होनेवाले वज्रऋषभनाराच संहनन, वज्रनाराचसंहनन, नाराच संहनन, ये तीन भेद उत्तम संहनन कहे गये हैं । यह तीनों प्रसिद्ध उत्तम संहनन जिस आत्माके उदय प्राप्त कार्यान्वित है वह आत्मा उत्तम संहनन है। यह बहुब्रोहिसमास कर उत्तम संहनन शब्द का अर्थ करदिया गया हैं। उस उत्तम संहननवाले आत्माके ही बढिया ध्यान होसकता है। किन्तु फिर जिस हीनशक्तिक जीवका उत्तम संहनन है, उस निर्बल जीवके ध्यान होना नहीं बनता है जबकि उसके बढ़िया ध्यान करनेकी शक्ति का अभाव है।
यहां कोई हठयोगी या प्राणायाम को पुष्ट करनेवाला पण्डित आक्षेप कर रहा है कि जो श्वासोच्छवास आदि वायुओंपर विजय प्राप्त कर चुका है, वह भले ही उत्तमसंहननोंका धारी नहीं भी होय फिर भी उसके ध्यान करनेकी सामर्थ्य है क्योंकि