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नवमोऽध्यायः
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आसनके सिद्ध हो जाने पर श्वसन और प्रश्वास की गति का अभाव होजाना प्राणायाम है।
" स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुसार इवेन्द्रियारा प्रत्याहारः" (साधनपाद ५४ वा सूत्र ) अपने अपने विषयों के साथ अच्छा संबन्ध नहीं होते हुये इन्द्रियोंका मन के स्वरूप अनुकरण होजाना ही मानो प्रत्याहार है अर्थात् यम, नियम के अनुष्ठान द्वारा संस्कृत होकर चित्त अपने विषयों से विरक्त होजाता है तब मनके अधीन होकर अपने अपने विषयों मे सञ्चार करनेवाली इन्द्रियां भी विषयोंसे विमुख होकर चित्तस्थिति के समान स्थित हो जाती हैं। ... विषयों में नहीं जान देकर इन्द्रियोंको अन्तर्मुख रोके रहना प्रत्याहार है। "देशबन्धश्चित्तस्य धारणा " ( योगसूत्र विभूतिपाद पहिला सूत्र ) चित्त का किसी नाभिचक्र, हृदयकमल मूर्धभाग, नासिकाअन, जिल्हाअग्र, आदि प्रदेशो मे बन्धन करना यानी स्थिर करना धारणा है। " तत्र प्रत्ययकतानवा ध्यानम् " ( विभूति पाद दूसरा सूत्र) धारणा के अनन्तर उस ध्येय पदार्थ में चित्तवृत्ति की एकतानता को ध्यान कहते हैं " तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः " ( विभूतिपाद तीसरा सूत्र ) जैसे जपाकुसुम के सविधान से स्फटिकमणि अपने श्वेत रूप को त्यागकर पुष्प के रक्त रंग से रक्त प्रतीत होती है उसी प्रकार अभ्यासद्वारा अपने ध्यान स्वरूप से शून्य होरहा मानू वह ध्यान ही ध्यानात्मक रूप को त्यागकर केवल ध्येयरूप प्रतीत होने लगजाता है वह समाधि है, जहां ध्याता, ध्यान, ध्येय तीनो प्रतिभासते है वह ध्यान है और केवल स्वरूपशून्य ध्येय का ध्यान लगा रहना समाधि है। जिस समाधि अभ्यास से सम्पूर्ण पदार्थों का साक्षात्कार हो जाता है, वह सम्प्रज्ञात समाधि है यो पतञ्जलि ने योगसूत्र मे निरूपण किया है।
___ यहाँ आचार्य कह रहे हैं कि पवन पर विजय प्राप्त कनने से ध्यान की सामर्थ्य नही आती है इस कथनसे प्राणायाम और धारणा को भी ध्यान का कारणपना नहीं है यह कह दिया गया समझो, जैसे प्रत्याहार ध्यान का कारण नहीं होता है । ये तीनों मात्मा की ध्यान धारने की शक्ति को पुष्ट नहीं करते हैं। हो, यम और नियम को तो ध्यान या योग का अंगपना इष्ट ही हैं, यम तो आपने जैन सिद्धान्त अनुसार ही माव लिये है " अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः" इत्यादिक सिद्धियों का होजाना