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नवमोऽध्यायः
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ततो नकान्तवादिनां ध्यानध्येयव्यवस्था, प्रमाणविरोधात् स्वयमिष्टतत्त्वनिर्णयायोगात् ध्यातुरभावाच्च । न हि कूटस्थपुरुषो ध्याता पूर्वापरस्वभावत्यागोपादानहीनत्वात क्षणिकचित्तक्त।
यहां कोई एकान्तवादी पण्डित कह रहा है कि विकल्पनाओं से आरोपे गये विषय में ध्यान प्रवर्तता है जैसे श्मश्रुनवनीत नाम का परिग्रही मोंछ में लगे हये मक्खन की भित्तिपर क्रयविक्रय अनुसार कोरी मनगढन्त रौद्रध्यान की कल्पनायें करता रहा था छोटे छोटे बच्चे अपने खेल खिलोनेपर अनेक निःसार कल्पनायें उठाया करते हैं । दुःस्वप्नों में भी रीती कल्पनायें उत्पन्न होती रहती हैं, इसी प्रकार ध्यान भी असद्भुत कल्पित पदार्थों में वर्तता है। ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार एकान्तरूप से कथन करना श्रेष्ठमार्ग नहीं है । अनेक आर्त, रौद्र ध्यानों में व्यर्थ कोरी कल्पनायें उठाकर यह जीव पापबंध करता रहता है। किन्तु बहुत से आर्त रौद्र ध्यानों में विषयों का अवलम्ब पाकर ज्ञानधारा बहती है। धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान तो परमार्थरूप से वस्तु स्पर्शी ही हैं। आप शंकाकारों ने भी "ध्यानं निविषयं मनः" ( सांख्यदर्शन छठा अध्याय पच्चीसवां सूत्र ) ऐसा अभीष्ट किया है । यदि सभी ध्यान कल्पित अर्थ में प्रवर्त रहे माने जायेंगे, तब तो तुम्हारे यहां वास्तविक रूपसे माने गये विषयों का अवलम्ब नहीं लेकर लग रहे मनःस्वरूप ध्यान को भी काल्पनिक हो जाने का प्रसंग आ जायगा। जैसे कि गुडियां गुड्डों से खेलनेवाली लडकियों के द्वारा बहुत से झूठ सूट कल्पना कर लिये गये लड्डू, पूडी आदि भोज्य पदार्थों में भोजन भी काल्पनिक ही समझा जायगा। बच्चे, बच्चियां, रेत मट्टी के कल्पित लड्डू, पूडियों को मुख की आकृति बनाकर कल्पित भोजन कर लेती है, ऐसी कोरी कल्पना से क्रीडा मात्र के अतिरिक्त कोई तृप्ति नहीं हो जाती है। इसी प्रकार यहां वहां की मनोनीत कल्पना किये गये ध्यान से ध्याता आत्मा को वस्तुभूत अकल्पित फल हो जाना नहीं बन सकता है। मिट्टी के खिलौना हो रहे गाय, घोडे, बैल से वास्तविक दूध या बोझा ढोना, खींचना; कार्य नहीं हो सकते हैं जैसे कि कल्पित भोजन से भूख दूर होकर अकल्पित तृप्ति नहीं हो जाती है । तिसकारण एकान्तवादियों के यहां ध्यान और ध्यान करने योग्य ध्येय पदार्थ की व्यवस्था नहीं हो सकती है। क्योंकि प्रमाण से विरोध आ जायगा। उनके यहां माने गये "तत्र प्रत्ययकतार्थ्यानं" " रागोपहति निं" "ब्रह्मात्मचिन्ता ध्यानं'; "ब्रह्म वास्मीति सद्वृत्या निरालम्बतया आनन्ददायिनी स्थितियानम् " ये कोई भी ध्यान के लक्षण प्रमारणों से सिद्ध नहीं होते हैं। इसी प्रकार ध्यान करने योग्य कूटस्थ