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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
आत्मा या सूर्यमण्डल मध्यवर्ती परमात्मा अथवा ब्रह्म आदिक ध्येय पदार्थ भी प्रमाणों से निर्णीत नहीं है यों स्वयं इष्ट किये गये पुरुष, प्रकृति आदि पच्चीस तत्त्व या प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थ अथवा द्रव्य, गुण, कर्म आदि सात पदार्थ एवं सद्ब्रह्म आदिक ध्यान करने योग्य तत्त्वों का निर्णय नहीं हो पाया है। अतः ध्येय तत्त्व की व्यवस्था नहीं हुई । तथा ध्याता आत्मा का भी अभाव हो जानेसे नित्यपक्ष या क्षणिक एकान्त आदि दर्शनों में आत्मा की नैयायिक पण्डित सभी आत्माओं को नित्य, व्यापक मानते हैं, वेदान्ती मान बैठे हैं, बौद्ध बुध तो ज्ञान के अतिरिक्त आत्मा को स्वीकार ही
यों के यहाँ आत्मा कमलपत्र के समान निर्लेप माना गया है । ये आत्मतत्त्व के स्वरूप कथन की परिभाषायें सब प्रमाणों से विरुद्ध पडती है । जब कि आत्मा निजोपात्त शरीरानुविधायी, ज्ञानात्मक, परिणामी, स्वसंवेद्य हो रहा है । वस्तुतः ऐसा ही आत्मा ध्यान का कर्ता, ध्याता बन सकता है । कापिलों का माना गया कूटस्थ, अपरिणामी पुरुष तो ध्याता नहीं, क्योंकि जो पहिली ध्यानान्तर की अवस्था या अध्यान की दशाको छोड़कर विवक्षित पदार्थ के ध्यान की पर्याय को धारण करेगा, वही ध्याता होगा, कूटस्थ पदार्थ में पूर्वं स्वभावों का परित्याग उत्तर स्वभावों का ग्रहण करना बौर ध्रुवता इस परिणाम की होनता है, जैसे कि सत् का सर्वथा विनाश और असत् का सर्वाङ्ग उत्पाद होना मान रहे बौद्धों के यहां मात्र क्षणस्थायी चित्त के पूर्व स्वभावोंका त्याग और उत्तर स्वभावों का ग्रहण तथा ध्रुवता इस सिद्धान्त लक्षणलक्षित परिणाम को नहीं धारने के कारण ध्यातापन नहीं सुघटित हो पाता है ।
नापि प्रधानं तस्याचेतनत्वात् कायवत् । महदादिव्यक्तात्मा ध्यातेति चेन्न, तस्य प्रधानव्यतिरेकेणाभावात् । कल्पितस्य चावस्तुत्वात्संतानवत् । स्याद्वादिनां तु ध्यातास्ति, तस्योत्तमसंहननत्व विशिष्टस्य मूर्तिमत्त्वात् । तथा चाह
ध्यान करना नहीं बनता है सिद्धि नहीं हो पाई है ।
अद्वैत ब्रह्म को नहीं करते हैं,
सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणों की साम्य अवस्थास्वरूप प्रकृति भी ध्यान करनेवाली ध्याता ( ध्यात्री ) नहीं हो सकती ही है । क्योंकि सांख्यों ने उस प्रधान को अचेतन होना माना है । जैसे कि अचेतन शरीर विचारा ध्यान नहीं कर सकता है, उसी प्रकार चैतन्यरहित प्रधान भी ध्यान करनेवाला नहीं सुघटित होता है " सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः, प्रकृतेर्महान्महतो हंकारोऽहंकारात्पञ्च तन्मात्राप्युभय मंद्रियं वन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि पुरुष इति पञ्चविंशतिर्गुणाः ( सांख्यसूत्र पहिला अध्याय ६१ वाँ सूत्र ) अव्यक्त प्रधान के व्यक्त हो रहे महान् आदि परिणाम भी ध्याता हो जाते हैं, यह कहना भी तो ठीक नहीं पडेगा । क्योंकि उन महदादिचों के प्रधान से भिनपने
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