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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे
शब्द व्याकरण की प्रक्रिया से निर्दोष सिद्ध कर लिया जाता है । ज्ञानावरण कर्म और वीर्यान्तराय कर्म इन दोनों का निःशेषरूप से विगम ( क्षयोपशम ) हो जानेपर प्रकट हुई जानने और उत्साह करने की विशेष आत्मीय सामर्थ्य करके ध्यान करना होता है इस कारण यह ज्ञानोत्साहशक्ति ध्यान है यदि एकान्तरूप से ध्यान को क्रियास्वरूप
या कर्ता अथवा कररण स्वरूप ही माना जायगा तो उसमे अनेक दोषों का विधान आता है इसको हम पहले कह चुके हैं ।
प्रथमसूत्रे ज्ञानशब्दस्य करणादिसाधनत्वसमर्थनात् निर्विषयस्य ध्यानस्य भावसाधनत्वाद्यनुपपत्तेश्च । भाववंतमन्तरेण भावस्यासंभवात् कर्तुरभावे करणत्वानुपपत्तेः । सर्वर्थकान्ते कारकव्यवस्थासंभवस्य चोक्तत्वात् ।
समर्थन किया जा चुका विषयभूत ध्येय पदार्थ हैं,
सब से पहिले के " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " इस सूत्र मे ज्ञान शब्द को करण, भाव आदि ( कर्ता ) में साध लेने का है । ध्यान ज्ञानस्वरूप ही है, ज्ञान के समान ध्यान में भी इन का अवलम्ब क्वचित् भले ही कोई पदार्थ पड जाय किन्तु चारित्र, सुख, वीर्यं आदिक तो विषयों से रीते होते हैं आत्मीय सुख या आत्मीय स्वरूप निष्ठा किसी विषय के नहीं हैं । स्वयं तद्रूप हैं, किन्तु ज्ञान या ध्यान तो किसी न किसी विषय का ही होगा । केवलज्ञान भी त्रिलोक त्रिकालवर्त्ती बहिरंगपदार्थ और आत्मीय अन्तरंग पदार्थों को विषय कर रहा है, यों ध्यान में भी कोई द्रव्य या पर्याय अथवा स्वकीय शुद्धात्मा विषय अवश्य पड जाते हैं विषयों से रहित हो रहे ध्यान को भावसाधनपना अथवा कर्तासाधनपना आदिक नहीं बन सकते हैं क्योंकि भाववान् पदार्थ के विना भाव का होना असम्भव है घट के विना घटत्व नहीं ठहर पाता है और कर्ता का अभाव माननेपर करलपना नहीं बन सकता है सर्वथा नित्यपन, अनित्यपन आदि एकान्तों के मानने पर कारक होने की व्यवस्था का असम्भव है इस बात को हम पूर्व प्रकरणों मे कह चुके हैं " क्रियाप्रकारीभूतोऽर्थः कारकम् क्रियान्वयित्वं वा कारकत्वम् " आदि कारकपना अनेकान्त सिद्धान्त में बनता है केवल स्वरूपालम्बन को ही ध्यान मानने पर ध्यान सुव्यवस्थित नहीं हो पाता है ।
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न च विकल्पारोपिते विषये ध्यानमित्येकान्तवादोपि श्रेयान् निर्विषयध्यानस्यापि काल्पनिकत्वप्रसंगात् कुमारीपरिकल्पितभोज्ये काल्पनिक भोजनवत् । न च परिकल्पितात् ध्याताध्यातुः फलमकल्पितरूपमुपपद्यते कल्पित भोजनादकल्पित तृप्तिवत् ।