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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
विना ही अहंकार द्वारा प्रतिनियत हो रहे अर्थ का ही निर्णय बुद्धि करती है जैसे कि प्रतिबिम्ब के विना ही मन से संकल्प किये जा चुके अर्थ का अहंकारतत्त्व अभिमान करता है अथवा प्रतिबिम्ब पड़े विना इन्द्रियां भी नियत अर्थों की ही आलोचना करती हैं।
सिद्धान्त यह है कि अपनी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, स्वरूप विशिष्ट सामग्री के प्रतिनियम से ही सभी अर्थों में प्रतिनियम बने रहने की सिद्धि हो रही हैं, अतः ज्ञानवृत्तियों में प्रतिबिम्ब पड़ने की झूठी कल्पना से कुछ भी प्रयोजन नहीं सवता है और तिसप्रकार ज्ञानों का निराकारपना सिद्ध हो जानेसे चित्तवृत्तियों का सारूप्य यानी विषयाकारधारीपना नाममात्र को भी सिद्ध न हो सका जिससे कि "वृत्तिसारूप्यमितरत्र" इस सूत्र द्वारा उन ज्ञानवृत्तियों का विषय सारूप्य हो जाना सम्प्रज्ञात योग बन पाता। विषय ग्रहण या कषाय करने के समान संप्रज्ञात समाधि के अवसरपर ज्ञानवृत्तियों का तादू प्य नहीं बन पाता है। यों दूसरे विद्वान् सांख्यों के यहां ध्यान का बन जाना असंभव है। तथा ध्यान के समान ध्यान करने योग्य ध्येय पदार्थ भी सिद्ध नहीं हो पाता है क्योंकि उनके सूत्र में उस ध्येय पदार्थ का उपादान ही नहीं किया गया है जब ध्यान को ही सिद्धि नहीं हो सकी तो उस ध्यान से गम्य ध्येय की सिद्धि तो कथमपि नहीं हो सकती है हाँ स्याद्वाद सिद्धान्त को माननेवाले आहेत विज्ञों के यहाँ तो विशिष्ट एक अर्थस्वरूप ध्येयमें ध्यान लग जाना इसी सूत्र द्वारा कहा ही जा चुका है क्यों कि एक देश से या संपूर्ण रूप से चिन्ता के निरोध को ध्यान कहा है " एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् " एक अग्र ( अर्थ ) ही विषयपने करके ध्यान का विशेषण हो रहा है ( ध्याननिष्ठ विषयिता निरूपित विषयतावान् एकाग्रः ) इस ही रहस्य को ग्रन्थकार अग्रिम दो वार्तिकों द्वारा स्पष्ट कर दिखलाते हैं।
अनेकत्राप्रधाने वा विषये कल्पितेपि वा। माभूच्चिन्तानिरोधोय मित्येकाग्रे स संस्मतः ॥ ५ ॥ एकाग्रेणेति वा नानामुखत्वेन निवृत्तये। क्वचिच्चिन्तोनिरोधोस्याध्यानत्वेन प्रभादिवत् ॥ ६॥
उक्त सूत्र में " एकाग्रचिन्तानिरोधः " को ध्यान कहा गया है। एक वास्तविक प्रधान अर्थ में चिन्ताओं का निरोध करना ध्यान है। इन लक्षण घटित पदों का साफल्य यों है कि अनेक अप्रधान अथवा कल्पित किये गये भी अर्थ में