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नवमोध्यायः
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यदि प्रतिबिम्ब पडे विना ही चैतन्योपयोग कर बैठे तो प्रत्येक पदार्थ का नियतरूपेण तनोपयोग होने के नियम के अभाव का प्रसंग आ जावेगा, जब प्रकृति व्यापक है तो कोई भी आत्मा किसी भी प्राकृत पदार्थकी चेतना कर लेगी। अतः “बुध्यध्यवसितमर्थं पुरुषश्चेत " प्रतिबिम्ब द्वारा बुद्धि में निर्णीत हो चुके अर्थ की ही नियत रूपेण पुरुष चेतना करता है यह मानना पडता है ।
ग्रन्थकार कहते हैं कि तब तो हम पूछेंगे कि बुद्धि भी बिचारी किस कारण से प्रत्येक के लिये नियत हो रही अर्थ के प्रतिबिम्ब को धारण करती है ? किन्तु फिर सम्पूर्ण अर्थों के प्रतिबिम्ब को क्यों नही धार लेती है ? इसका नियामक हेतु आपको कहना पडेगा, जब कि जगत् में अनन्तानन्त पदार्थ पडे हुये हैं तो बुद्धि सबका प्रतिबिंब ले लेवे नियामक हेतु के विना किसी विशिष्ट अर्थ का ही प्रतिबिम्ब ले लेने की व्यवस्था नही हो सकती है ।
इसपर सांख्य यदि यों कहै कि प्रत्येक बुद्धि के लिये नियत हो रहे विशिष्ट अहंकार द्वारा अभिमान के विषय हो रहे पदार्थ का ही बुद्धि प्रतिबिम्ब लेती है अर्थात् प्रकृति का पहिला विवर्त बुद्धि है पुनः बुद्धि का कार्य अहंकार है, अहंकार का कार्य ग्यारह इन्द्रियाँ और पाँच तन्मात्रायें हैं यों अहंकार से नियत अर्थ का बुद्धि प्रतिबिम्ध लेती है और बुद्धि प्रतिबिम्बित अर्थ का चेतयिता पुरुष है यों कहनेपर तो ग्रन्थकारा कहते हैं कि ऐसा इस दूरवर्तिनी परम्परा से क्या लाभ निकलेगा ?
फिर हम पूछेंगे कि अहंकार भी नियत अर्थ का अभिमान क्यों करता है ? इसपर आप कहेंगे कि मन से जिस नियत विषय का संकल्प किया गया था उसी का अहंकारने अभिमान किया पुनः इसपर प्रश्न उठेगा कि मनने नियत अर्थ का ही संकल्प क्यों किया ? सभी प्राकृत पदार्थों का उसको " यह होगा " या " वह होगा " ऐसा संकल्प करना चाहिये था, तिसपर आप सांख्य कहोगे कि इन्द्रियों द्वारा जिस पदार्थ का आलोचन हुआ उसी नियत विषय को मन विचारता है ।
पुनरपि प्रश्न उठता ही रहेगा कि इन्द्रियों ने ही उन नियत विषयों का आलोचन क्यों किया, सभी का एक ओरसे धरकर आलोचन कर डालना चाहिये था । बहुत साहस करेंगे तो भी आप पांचवे, छठे चोद्य का कुछ भी उत्तर नहीं दे सकेंगे अतः इस व्यर्थ की परम्परा को छोडिये इससे कुछ लाभ नहीं । अन्त में पकडे जानेवाले निर्णीत मार्गपर प्रथम से ही आरूढ हो जाइये । देखो बात यह है कि प्रतिविम्ब के