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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे
प्रधान तो अनित्य नहीं है। क्योंकि वह परिणामोंको करनेवाला या धार रहा परिणामो हैं परिणामी द्रव्य आप जैनों के यहां भी नित्य ही माना गया है । यों कापिलोंके कहने पर तो आचार्य सहर्ष वह रहे हैं कि तिस ही कारण से ज्ञान पर्याय और आत्मद्रव्य का अभेद होते हुए भी ज्ञान ही अनित्य रहो । पुरुष ( आत्मा ) तो नित्य बना रहो हमारे तुम्हारे. यहां कोई विशेषता नहीं है। जो आपका कटाक्ष है वही हमारा आक्षेप हो सकता है और जो आपकी ओरसे समाधान किया जायगा वही हमारा समाधान भी समझ लेना चाहिये | अपने घिसे रुपये को उत्तमोत्तम रुपया कहना और दूसरे के बढिया रुपये को रूपिल्ली कहने की टेव विद्वानों को नहीं शोभती है । जैसे सांख्यों के यहां ( प्रकृति ) परिणामी, नित्य हैं उसी प्रकार हम स्याद्वादियों के यहाँ आत्मा परिणामी नित्य है । जगत् में कूटस्थ नित्य पदार्थ खरविषाणवत् अलीक है, असद्द्भुत हैं ।
पुरुषोऽपरिणाम्येवेति चेत्, प्रधानमपि परिणामि माभूत् । व्यक्तेः परिणामी प्रधानं न शक्तेः सर्वदा स्थास्नुत्वादिति चेत्, तथा पुरुषोपि सर्वथा विशेषाभावात् सर्वस्य सतः परिणामित्वसाधनाच्च, अपरिणामिनि क्रमयौगपद्य विरोधादर्थ क्रियानुपपत्तेः सत्त्वस्यैवासंभवात् । ततो द्रष्टात्मा ज्ञानवानेव बाधकाभावादिति न तस्य स्वरूपेऽवस्थितिरज्ञानात्मिका काचिदसंप्रज्ञातयोगदशायामुपपद्यते जडात्मभावात् ।
कपिलमनानुयायी कहते हैं कि हमारे यहाँ पुरुष आत्मा कूटस्थ नित्य ही है, परिणमन नहीं करता है । ऐसा उनके कहनेपर तो हम आक्षेप करेंगे कि तब तो प्रकृति भी परिणामों को करनेवाली मत होओ। इसपर पुन: सांख्य कहते हैं कि महत्तत्व आदि व्यक्तियों को अपेक्षा से प्रधान परिणामों को करता है शक्ति की अपेक्षा से नहीं, शक्ति की अपेक्षा से तो वह प्रधान सर्वदा स्थितिशील है । उत्पाद, विनाश, या आविर्भाव, तिरोभाववाला नहीं है । यों सांख्यों के कहनेपर तो हम जैन भी कह देंगे कि तिस ही प्रकार पुरुष भी व्यक्त पर्यायों की अपेक्षा परिणमनशील है, द्रव्यशक्ति की अपेक्षा तो सर्वदा नित्यस्वभाव है । आपकी परिणामधारिणी प्रकृति से हमारे यहां के परिणामी आत्मा का सभी प्रकारों से परिणाम धारने में कोई अन्तर नहीं है ।
एक बात यह भी है कि सम्पूर्ण सत् पदार्थोंका परिणामी होना पहिले प्रकरणों मे सिद्ध कर दिया गया है । जो उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, परिणामों को नहीं धारता है वह खरविषारणवत् असत् है । परिणामों से रीते पदार्थ मे क्रम और युगपत् पका विरोध हो जाने से अर्थ क्रिया करने की सिद्धि नहीं होने के कारण उसकी