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नवमोऽध्यायः
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आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना, क्योंकि इसी प्रकार तुम्हारे यहां सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण की साम्यावस्थारूप प्रकृती को भी अनित्य हो जाने का प्रसंग बन बैठेगा, सांख्योंने भी प्रकृति को अनित्य नहीं माना है । यदि सांख्य यों कहें कि उस प्रकृति की पर्यायें हो रहे महत्तत्त्व ( बुद्धि ) अहंकार, ग्यारह इंद्रियां, पांच तन्मात्रायें और पांच भूत, इन व्यक्त पदार्थों का अनित्यपना हम स्वीकार करते हैं। अतः कोई दोष नहीं आता है, यों समाधान करने पर तो ग्रन्थकार कह रहे हैं कि जैसे नित्यप्रधान के परिणाम हो रहें बोध आदिक अनित्य भी हो सकते हैं उसी प्रकार नित्य आत्मा के ज्ञान विशेष, सुख, दर्शन आदिक परिणाम भी अनित्य हो जाय तो क्या दोष आता है ? आत्मा के परिणाम हो रहे ज्ञान आदिक अनित्य हो सकते हैं । कोई क्षति नहीं है । इसपर कापिल पुनः आक्षेप उठाता है कि आप जैनों के कथन में यह EST भारी दोष आता है कि उन ज्ञानादि पर्यायों को आत्मा से कथंचित् अभिन्न मानने पर आत्मा के भी क्षणध्वंसी हो जाने का प्रसंग आ जायगा । ज्ञान का भट भट नाश होते ही आत्मा भी विनशता रहेगा । किन्तु आपने आत्मद्रव्य को अनादि, अनन्त अविनाशी, अभीष्ट किया है ।
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अब आचार्य महाराज सांख्य विद्वानों के प्रति कहते हैं कि आप कापिलों के यहां महदादिक व्यक्त पदार्थ क्या प्रधान से अत्यन्त भिन्न हो रहे इष्ट किये गये हैं ? बताओ, जिस कारण कि उन बुद्धि आदिक परिणामों से प्रधान का कथंचित् अभेद हो जाने के कारण प्रकृति को अनित्यपना न होता । भावार्थ - जैसे आपने हमारे ऊपर ज्ञान का अभेद हो जानेसे आत्मा के क्षरणध्वंसीपन का दोष उठाया है, उसी प्रकार तुम्हारे यहां अव्यक्त प्रकृति का बुद्धि आदि व्यक्तों के साथ अभेद हो जानेसे प्रकृति का भी क्षणिकपना अनिवार्य हो जाता है । आपने भी प्रकृतिको अनादि, अनन्त, नित्य माना है ।
व्यक्ताव्यक्तयोरव्यतिरेकैकान्तेपि व्यक्तमेवानित्यं परिणामत्वान्न पुनरव्यक्तं . परिणामित्वादिति चेत्, तत एव ज्ञानात्मनोरव्यतिरेकेपि ज्ञानमेवानित्यमस्तु पुरुषस्तु नित्योस्तु विशेषाभावात् ।
पुन: वावदूक सांख्य पण्डित कह रहे हैं कि व्यक्त पदार्थ और अव्यक्त प्रकृति का एकान्तरूप से अभेद होनेपर भी महत्तत्त्व आदि व्यक्त पदार्थ ही अनित्य हैं क्योंकि ये परिणाम हैं, पर्यायें तो सबके यहां अनित्य मानी गई हैं, हाँ फिर अव्यक्त