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नवमोध्यायः
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सत्ताका ही असम्भव है। "सत्त्वं अर्थक्रियया व्याप्तं, अर्थक्रिया च क्रमयोगपद्याभ्यां व्याप्ता" तिस कारण सिद्ध हुआ कि दृष्टा आत्मा हो नियम से ज्ञानवान् भी हैं । जबकि इस आत्माके ज्ञानसहितपन का कोई प्रत्यक्ष आदि प्रमाण बाधक नहीं है । इस कारण उस आत्माका साँख्यमतानुसार असंप्रज्ञात समाधिदशा में अज्ञान स्वरूप हो रहे स्वकीय रूपमे अवस्थान हो जाना किसी प्रकार सुघटित नहीं हो पाता है। क्योंकि ज्ञानरहित आत्मा जड स्वरूप हो जायगा और असंप्रज्ञात दशामें जडस्वरूप हो जानेसे भला आत्माकी स्वकीय रूप में अवस्थिति क्या रही ? अग्नि का अतिशोत स्पर्श अवस्थामें अवस्थित रहना जैसे बाधित है उसो प्रकार आत्मा का ज्ञानरहित हो जाना अनेक बाधाओं से भरपूर है।
सम्प्रज्ञातस्तु यो योगो वत्तिसारूप्यमात्रक। संज्ञानात्मक एवेति न विवादोस्ति तावता ॥४॥
हाँ, आप सांख्यों ने जो प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति इन पांच वृत्तियोंके साथ तद्रूप हो जाना मात्र जो संप्रज्ञात योग माना है वह तो समीचीन ज्ञानरूप ही है। उसमें आत्माका ज्ञानलक्षण रक्षित रहता है। इस कारण तितने मात्रसे हम जैनोंका आप लोगोंके साथ कोई विवाद नहीं है। अर्थात् जिस समयमे चित्त एकाग्र नहीं है अथवा संप्रज्ञात समाधिरूप है वितर्क, विचार, आनंद, अस्मिता, इन चारों के अनुगम से संप्रज्ञात समाधिको प्राप्त हो रहा है, उस अवसरपर ज्ञान अक्षुण्ण बना रहता है । योगसे अन्यकाल व्युत्थान दशामे भो वृत्तियोंका सारूप्य होकर ज्ञान प्रकाशता रहता है, यो आत्माके ज्ञानसहितपनमे हमारा तुम्हारा मत एक है कोई झगडा नहीं है।
संप्रज्ञातो योगो ज्ञानात्मक एव "वृत्तिसारूप्यमितरत्रे"ति वचनात् । वृत्तयः पंचतय्यः तांसां विषयसारूप्यमानं जिहासोपादित्सारहितमुपेक्षाफलं तद्धयानं चित्तवृत्तिनिरोधस्यत्यंभूतस्य भावादिति यद्भाष्यते तत्र ज्ञानात्मत्वमात्रेण नास्ति विवादः सर्वस्य ध्यानस्य ज्ञानात्मकत्वप्रसिद्धः ज्ञानमेव स्थिरीभूतं समाधिरिति परैरप्यभिधानात् ।
___ आप सांख्योंके यहां माना गया सम्प्रज्ञात समाधियोग तो ज्ञान आत्मक ही है । पतञ्जलि प्रणीत योगसूत्रके पहिले समाधिपादका चौथा सूत्र "वृत्तिसारूप्यमितरत्र" ऐसा ऋषियों का वचन होनेसे आपको सम्प्रज्ञात अवस्थामै आत्माका ज्ञानरूप अभीष्ट करना पड़ता है। इसके अगले सूत्रमे चित्तकी क्लिष्ट, अक्लिष्ट, वृत्तियां पांच प्रकारको