________________
wwwwwwww
नवमोऽध्यायः
२२५)
ww
1
प्राणायाम इडा पिंगला, सुषुम्ना नाडियां, क्षुद्रविद्या और महाविद्याओं की सिध्दि सिंह, गज, मेष, आदि रूपों की परावृति करना, इन्द्रजाल विद्या, वशीकरण, स्तम्भन, मंत्रविधान, आदिका विस्तृत वर्णन अंगप्रविष्ट, और अंगबाह्य श्रुतग्रन्थो में किया गया है, किन्तु मोक्षोपयोगी क्रियाके लौकिक कर्तव्योंसे भिन्न है ।
कर्मों की संवर या निर्जराके सम्पादक शुभ ध्यानों के लिये प्रशस्त परिकर सामग्री आवश्यक है, हां आतंरौद्रध्यान तो तीव्ररागी, द्वेषो जीवोमे सुलभतासे बन बैठते हैं । सातमे नरकको ले जानेके लिये भी विशेष निकृष्ट परिकर अपेक्षणीय है सम्पूर्ण सिध्दान्त इस सूत्र द्वारा ही परिशुद्ध प्रतिभावाले विद्वानों की दृष्टिमे आ जाता है, अतः इसको सामर्थ्यंगम्य कह दिया है ।
तत्र कश्चिदाह - योगश्चित्तवृत्तिनिरोध इति, स एवं पर्यनुयोज्यः किमशेष चित्तवृत्तिरोधस्तुच्छः किं वा स्थिरज्ञानात्मक इति ? नाद्यपक्षः श्रेयानुत्तरस्तु क्यादित्याह
ध्यान का स्वरूप और सामग्री का निरूपण करने के उस अवसरपर कोई एक योगमतानुयायी पतजलि विद्वान यों कह रहे है कि योग तो चित्तकी वृत्तियोंका निरोध हो जाना है अर्थात् योग मतानुसार सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुणोंकी साम्य अवस्था रूप प्रकृत्तिके परिणाम स्वरूप मन यानी अन्तःकरण अथवा बुध्दीस्वरूप चित्तको बहिर्मुखताका विच्छेद हो जानेसे अन्तर्मुख होकर अपने कारण में लय हो जाना योग है । अभ्यास, वैराग्य, आदि साधनोंसे उस चित्तकी शांत, घोर, मुढवृत्तियोंका या प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा, स्मृति, इन पांच वृत्तियोंका निरोध हो जाना योग हैं। अब आचार्यं कहते हैं कि वह योगमतानुयायी इस प्रकार प्रश्न उठाकर पर्यालोचना करने के योग्य है, कि बताओ भाई सम्पूर्ण चित्तवृत्तियोंका निरोध हो जाना क्या तुच्छ निरुपाधि अभाव पदार्थ है ? अथवा क्या चंचल चित्तवृत्तियों का रुककर स्थिर ज्ञानरूप हो जाना यह निरोध है ? भावार्थ- अभावको कहनेवाले नञ्के जैसे प्रसज्य और पर्युदास ये दो भेद हैं, पहिला तुच्छ अभावको कह रहा है, दूसरा पर्युदास तो तद्भिन्न तत्सदृश्य भाव पदार्थका प्रतिपादक है, उसी प्रकार निरोध पदका अर्थ भी सर्वाङ्गरूपेण अभाव और तत्सदृश्य भाव पदार्थ होता है । ऐसी दशामे उठाये जा रहे उक्त दोनों प्रश्नोंका उत्तर देना पतजलि अनुयायियोंको आवश्यक पड जाता है । तुच्छ अभावको निरोध मानना यह आदिका पक्ष तो श्रेष्ठ नहीं है- क्योंकि वैशेषिक मतानुयायी ही तुच्छ अभावको स्वीकार करते हैं । मीमांसक, जैन, और योगदार्शनिक तुच्छ अर्थको नहीं मानते