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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
ध्यान का परिकर भी इसी सूत्र से अभिधेय हो जाता है । भावार्थ- ध्यान का प्रकरण अतीव गम्भीर है, विशेष ध्यानोंकी प्रक्रिया के लिये गुरु परिपाटी की आवश्यकता है, तथापि सूत्रकार महाराज ने इस सूत्रमे शिष्योंको समझाने के लिये बहुत कह दिया है।
एक अर्थ मे मानसिक उपयोग को रोके रहना ध्यान है । उत्तम संहननों का धारी पुरुष ध्यान करनेवाला अच्छा ध्याता हैं । अन्य विषयों से चिंताओं का संहरण कर स्तिमित अन्तःकरण की वृत्तियों को जिस अर्थ में लगा दिया जाता है, वह पदार्थ ध्येय है। और अन्तर्मुहूर्त तक एक ध्यान टिक सकता है, यह सूत्र मे ध्यान का काल कह दिया गया हैं । ध्यान का परिकर तो योगियों के गम्य हैं।
श्री राजवातिक में शुक्लध्यान और धर्मध्यान के परिकर का विवरण यों किया हैं कि उत्तम संहनन वाला पुरुष परीषहोंकी बाधाओंको सह सकने वाला स्वात्मोपलब्धि के लिये या ध्यान योग के लिये समर्थ होता है । पर्वतों की गुहा, नदीकिनारा, वन, जोर्ण उपवन, शून्यगृह आदि किसी एक शुद्ध स्थानपर ध्यान लगावे, उस स्थान पर उपद्रवी पशु, पक्षी, सर्प, मनुष्य आदि का आना जाना न होय । अधिक शीत और अधिक उष्ण भी नहीं होय, तीव्र वायु, वर्षा, घाम से रहित होय, अन्य भी ढोल बजना, नाचना, गाना, कोलाहल होना, आदि चित्तविक्षेप के कारणोंसे रहित होय, ऐसे स्वानुकूल स्पर्श वाले शुद्ध स्थानपर प्रमाद को नहीं करनेवाले सुखासन से बैठ कर या खडे होकर ध्यान लगावे, पल्यंकासन से सीधा बठकर शरीर को सुस्थिर रखता हुआ अपनी गोद मे डेरे (बाये) हस्ततल पर दक्षिण हाथको ऊपर हथेली करके धरता हुआ नासाग्रनयन होकर ध्यान लगावे । दातोंको खोलने या भींचने का प्रयत्न नहीं करता हुआ थोडा नम्रमुख होकर मुखपर प्रसन्नता धरता हआ सौम्यदष्टि होकर ध्यान करे । निद्रा, आलस्य, राग, रति, शोक, द्वेष, ग्लानि, आदि विकारों को दूर कर मन्द मन्द श्वास, उच्छ्वास का प्रचार कर रहा नाभिके ऊपर, हृदय, मस्तक अन्याय किसी परिचित अंग मे मनोवृत्ति का विन्यास कर मोक्ष को चाहनेवाला जीव प्रशस्त ध्यान करे।
क्षेमा, अहिंसा, ब्रम्हचर्य, मार्दव आदि गुणों को तदात्मक होकर रक्षित रख रहा आत्मतत्व को जानने मे उपयुक्त हो रहा मनुष्य ध्यानी कहा जा सकता है। केवल प्राणायाम लगाकर या अन्य किसी हठयोग की पद्धति से कितने दिनों या महिनों तक मत्त, मूछित या मृतकल्प होकर पडे रहना, ध्यान या योग नहीं है । ऐसी समाधि का ढोंग जहां कि स्वात्मतत्त्वोपलब्धि नहीं है, जैनदर्शन मे प्रशस्त नहीं माना गया है।