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नवमोध्यायः
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नामक तपके व्याख्यान करने की इच्छा रखते हुये इस अग्रिम सूत्र को बहुत बढिया ध्यक्त कर रहे हैं। उत्तमसनहनस्यै काग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमांतर्मुहूर्तात् ॥२७॥
वज्रवृषभनाराच और वज्रनाराच तथा नाराच इन तीन उत्तम संहननों मे से किसी भी एक संहनन को धार रहे जीवके किसी एक अर्थमे अव्यग्र, अनन्यमनस्क होकर जो चिंताओंका निरोध हो जाना है वह ध्यान है, जो कि आवलि कालसे ऊपर और दो घटी से नीचे के अन्तर्मुहूर्त नामक काल तक हो सकता है। भावार्थ- एक ध्यान अन्तर्महर्त से अधिक दो घन्टे, चारघन्टे, एक दिन, दो दिन आदि कालों तक नहीं किया जा सकता है । कई घन्टे तक जो ध्यान लगाये बैठे दीखते हैं, उनके उतनी देरमे अनेक ज्ञान हो चुके हैं, जैसे कि उत्तर वैक्रियिक शरीर अन्तर्मुहुर्तसे अधिक नहीं ठहरता है, हाँ, उसको पुनः पुनः उत्पत्ति होकर सततधारा कई घन्टो दिनो तक एक सी बनी रह सकती है। बड़े अन्तर्मुहूर्त कालतक तो उत्तम संहननवाले पुरुष ही ध्यान लगा सकते हैं। हीन संहननवाले जीव भी आर्त,ध्यान या धर्मध्यान कर सकते हैं । हां, महासंक्लेशरूप प्रधान आर्त, रौद्र ध्यान तो उत्तम संहननवाले जीवके ही प्रवर्तते है। संहनन के उदय से सर्वथा रीते हो रहे देव, नारकियों के भो उक्त तीन ध्यान सम्भवते हैं। मोक्षके उपयोगी प्रकृष्ट ध्यान तो उत्तम संहननवालों के ही बनेंगे । अन्य विषयोंसे चिंताओंको हटाकर एक ही अर्थ मे मानसिक विचारोंकों केन्द्रीभूत कर देना, शुभ ध्यान या अशुभध्यान कहा जायगा । शेष चिन्ताओं को भावना या सामान्यज्ञान समझा जायगा ।
किमनेन सूत्रेण क्रियत इत्याह -
इस उमास्वामी महाराज के सूत्र करके क्या अभिधेय की ज्ञप्ति को जा रही है ? ऐसी जिज्ञासा उपज जाने पर ग्रन्थकार अग्रिमवात्तिक का निरूपण कर रहे हैं, उसको सुनिये।
उत्तमेत्यादिसूत्रेण ध्यानं ध्याताभिधीयते ।
ध्येयं च ध्यानकालश्च सामर्थ्यातत्परिक्रिया ॥१॥ ___" उत्तमसंहननस्य काग्रचिन्ता" इत्यादि सूत्र करके ध्यान, ध्यान करने पाला जीव, ध्यान करने योग्य ध्येय पदार्थ और ध्यान धारे रहनेका काल, ये चार बाते कण्ठोक्त कह दी गयी है। तथा कण्ठोक्त किये विना ही अर्थापत्ति को सामर्थ्य से उस