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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
करना, नियतकाल अथवा जीवन पर्यन्त काय को त्याग देना, इन शक्तियोंकी अपेक्षा रखता हुआ न्यारा ही विशेष पर्याय है । निवृति धर्म के उत्तरोत्तर गुणों की प्रकर्षता हो जाने से और संयमी के उत्साह की उत्पत्ति कराना स्वरूप प्रयोजन होने से पुनरुक्त पना नहीं है । इस प्रकार त्याग सामान्य होने से एक भी हो रहा व्युत्सर्ग बिचारा विशेषणों के भेद से अनेक हो जाता है, उसके फल भी मेघजल के प्रयोजनसमान परिस्थिति वश अनेक हैं।
स च निःसंगनिर्भयजीविताशाव्यदासाद्यथं व्यत्सर्गः। कथमुपध्योर्बाह्यताभ्यन्तरता च मता यतस्तयो व्युत्सर्गः स्यादित्याह
तथा वह व्युत्सर्ग नामका तप तो परिग्रह रहितपन, भयरहितपन, जीवित रहने की आशा का परित्याग हो जाना, दोषोंका उच्छेद हो जाना, मोक्षमार्गकी भावना मे तत्पर बने रहना, दुष्कर्मों का संवर हो जाना, आत्मशुद्धि होना, आदि प्रयोजनों की सिद्धि के लिये किया जातो है ।
___ यहां कोई प्रश्न कर रहा है कि इन दो उपधियो को बाहयाना और अभ्यन्तरपना कैसे माना गया है ? जिससे कि उनका त्याग करना, व्युत्सर्ग नामका तप हो सके, ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार समाधानार्थ इस उत्तरवातिक को स्पष्ट कह रहे हैं ।
बाह्याभ्यन्तरतोपध्योरनुपात्तेतरत्वतः ।
जीवेन तत्र कायाद्य द्यावेद्ये नणां मता ॥१॥
संसारी जीव करके नहीं ग्रहीत होनेसे और ग्रहोत होनेसे उपधियोंका बाहयपना आर अभ्यन्तरपना व्यवस्थित हो रहा है, उन दोनोमे संयमो मनुष्योंके काय आदि करके वेद्य हो रहा बाहर उपधित्याग है, और व्रती पुरुषोंकी शारीरिक चेष्टा आदि करके नहीं जानने योग्य तो उपधिका अभ्यन्तरपना माना गया है, अर्थात् वस्त्र, धन, गृह, कुटुम्ब आदि बाह्य वस्तुओं और उनके त्यागको साधारण जनता भी जानती है, हो, क्रोध, मान, शरीर ममत्व, आदिका ज्ञान और आत्मा मे उनके त्याग परिणाम का दूसरों को ज्ञान होना कठिन है। दोनों ही उपधियों के त्याग स्वपर परिणाम अन्तरंग हैं, अतः व्युत्सर्ग को अन्तरंग तपमे परिगणित किया गया है।
अथ ध्यानं व्याख्यातुकामः प्राहः ;पांचवे व्युत्सर्ग तपका निरूपण कर चुकने पर अब ग्रेन्थकार छठे ध्यान