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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारै
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हैं, जो कार्यंता, कारणता, अर्थक्रियाकारिता आदि धर्मोसे रोता है ऐसा तुच्छ पदार्थ आकाशकुसुम के समान असत् है, हाँ उत्तरवर्ती दुसरा स्थिरज्ञानस्वरूपचित्त वृत्तिरोध हो सकता है । इसी तत्वको ग्रन्थकार अग्रिमवार्तिक द्वारा विशदरूपेण कह रहें हैं । नाभावो शेषचित्तानां तुच्छः प्रमितिसंगतः । स्थिरज्ञानात्मकश्चिन्तानिरोधो नत्र संगतः ॥२॥
आत्मा की योग ( ध्यान ) अवस्था मे सम्पूर्ण चित्तोंका सर्वथा तुच्छ अभाव (प्रसज्य) हो जाना तो प्रमारणों से भले प्रकार जानने योग्य नहीं है । जब कि आत्मा ज्ञानस्वरूप है, यदि उसके सम्पूर्ण ज्ञानोंका तुच्छ अभाव हो जायगा, तो आत्म तत्व ही खरविषाण के समान उड जायगा । जड होकर आत्मा कभी ठहर नहीं पाता है । जो विषय समीचीन बुद्धि से ज्ञात नहीं हो रहा है, वह प्रामाणिक पुरुषो मे मान्य नहीं हैं। हां, वह चित्तवृत्तियों यानी चिन्ताओं का निरोध ( पर्युदाम ) यदि स्थिर ज्ञान स्वरूप है, अर्थात् यहां वहां के अनेक संकल्प विकल्पों मे से चित्तवृत्तियों को हटाकर एक अर्थ मे केन्द्रित कर स्थिर ज्ञानस्वरूप हो जाना है, ऐसा चिन्तानिरोध तो हम जैनों के यहां इस ध्यान के प्रकरण मे प्रमाण संगत प्रतीत हो रहा है, उसी को सूत्रकार ने इस सूत्र मे कहा है ।
' तदा
ननु चाशेषचित्तवृत्तिनिरोधान्न तुच्छोभ्युपगम्यते तस्य ग्राहकप्रमाणाभावादनिश्चितत्वात् । किं तर्हि ? पुंसः स्वरूपेवस्थानमेव तन्निरोधः स एव हि समाधि - संप्रज्ञातो योगो ध्यानमिति च गीयते ज्ञानस्यापि तदा समाधिभृतामुच्छेदात् । द्रष्टुः स्वरूपेवस्थानं,' इति वचनात् ।
पुनः योगमतानुयायियों का अनुनय है कि जैनों के समान हम भी सम्पूर्ण चित्तवृत्तियों का निरोध हो जानेसे कोई तुच्छ अभाव हो जाय, यानी कुछ भी ज्ञान, विचार, तर्करणा, भावना, नहीं रहे ऐसा नहीं स्वीकार करते हैं, क्योंकि ऐसे उस तुच्छ ध्वंसपदार्थ को ग्रहण करनेवाले प्रमारण का अभाव है । प्रामाणिक दार्शनिकों के यहां तुच्छ पदार्थ का अद्यापि निश्चय नहीं हो चुका है, अतः बन्ध्यापुत्र के समान तुच्छ निरोध को प्रमाणगोचर नहीं मानते हैं । तब तो यहाँ चित्तवृत्तियों का विरोध भला कौनसा भाव पदार्थस्वरूप है ? इस प्रश्नका उत्तर हम यौगिक यह देते हैं कि आत्माका अपने शुद्ध स्वरूप मे अवस्थान हो जाना ही उन चित्तवृत्तियों का निरोध हैं और वही नियम से समाधि या असंप्रज्ञात योग अथवा ध्यान इस प्रकार सुंदर शब्दों द्वारा गाया जाता है ।