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तत्त्वार्थश्लोक वातिकालंकारे
भोग और उपभोगो में बलाधान यानी पुष्टि प्राप्त कराने के लिये जा पार न हीत हा रहा है, इस कारण यह उपधि है।
आत्मा के साथ कथंचित् एव पन को प्राप्त होकर ..नहीं ग्रहा- किये गये वस्तुका त्याग कर देना बाह्य उपायोको सुत्सर्ग कहा जाता है। तथा यात्म। क: साथ कथंचित् एकत्व को प्राप्त होने वाले क्राध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, ह स्य, आदि औदयिक भावोंकी निवृत्ति कर देना अभ्यार उपवियोंका व्युत्सर्ग है। नियन काल तक अथवा जो धन पर्यन्त काय का त्याग कर देना भी अयनर उपधि का परित्याग है, क्योंकि काध आदिके समान शरीर का भा. जोव ने अन्तरंग रूप से परिग्रह कर रक्खा है ।
परिग्रहनिवृत्तेरवचन मिति चेन्न, तस्य धनहिरण्यवसनादिविषयत्वात् । धर्माभ्यन्तरभावादिति चेन्न, प्रालि रजवाहारादिनिवृत्ति तंत्रत्वात् । प्रायश्चित्तान्य-:न्तरत्वादिति चेत्र, तस्य प्रतिद्वन्द्धिनादात् प्रायश्चित्तस्य हि व्यत्सर्गजातिवारः प्रति - द्वन्द्वीप्यते निरपेक्षश्वाय ततो नेताका ननयकं । अनेकत्रावचनगनेव गतत्वादिति चेन्न शक्त्यपेक्षत्वात् । तदेवाह --
यहां कोई शका उठाता है कि हि व्रतोंका उपदेश करते समय परि - ग्रह की निवृत्ति कह दो गयी है, इस कारण यहा पुनः अन्तरंग वहिण परिग्रहों । त्याग करना व्यर्थ है, तब तो यहां तपों के प्रकरण में व्युत्पंग का निरूपण नहीं कना चाहिये । पकार कहते हैं कि यह ता नहीं कहना क्योंकि, "हिंम नृतस्ने पानम्ह - परिग्रहेभ्यो विरतिव्रतं " इस सूत्र अनुसार उस पार ग्रह निवृत्ति का ब.थन तो ग , भंस, सोना, वस्त्र, धान्य, आदिके परित्याग को विधय करता है और यहा रूपी के सभी अन्तरग, बहिरंग, उपधियों और शरीर का भो ममत्व त्याग कर देना अभीष्ट हो रहा है, तपश्चरण कर रहा मुनि तुछ नियत कालके लिये सम्पूर्ण उपधियों । सांकल्पिक परित्याग कर बैठता है।
पुनः शंका कार वह नहा है कि उन्ममा आदि दहा प्रकार के मा में त्याग धर्म भीतर पडा हुआ है, तदनुसार उपधियों का परित्याग कर दिया जायगा, न: यहां व्युत्सर्ग क्यों कहा जा रहा है। अन्य वार करते है कि यह कहना की तोटी, नहीं है, कारगा कि जीव रहित निर्दोष आहार, आप, 3 की नियक्ति करना । दान करना इस क्रिया को करने के लिये साध में पराधीन है, व त्याम अनुसार गृहस्थ आहार, औपधि, बातिका आदिका दान ना लिये याय