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नवsमोध्यायः
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• यहां कोई शंका उठाता है कि यह स्वाध्याय अन्तरंगतपः स्वरूप किस प्रकार है ? बताओ। ऐसी आशंका उपस्थित होने पर ग्रन्थकार श्री विद्यानंद स्वामी समाधानार्थ अग्रिम वार्तिक को कह रहे हैं ।
स्वाध्यायः पंचधा प्रोक्तो वाचनादिप्रभेदतः।
अंतरंगश्र तज्ञान - भावनात्मत्वतस्तु सः॥१॥
वाचना, पृच्छना आदिक प्रभेदों से स्वाध्याय तपः पांच प्रकारका इस सूत्र मे बढिया कहा जा चुका है (प्रतिज्ञा) क्योंकि वह स्वाध्याय तो अन्तरंग मे श्रुतज्ञान की भावना स्वरूप हो रहा है, (हेतु) श्रुतज्ञान की भावना अन्तरंग तप हैं, अतः तदास्मक स्वाध्याय भी अन्तरंग तप कहा जाता है ।
अथ व्युत्सर्गप्रतिनिर्देशार्थमाह;
स्वाध्याय का निरूपण कर चुकने पर अब श्री उमास्वामी महाराज अवसर प्राप्त व्युत्सर्ग नामक तपका परामर्श करते हुये विनीत शिष्योंकी प्रतिपत्ति कराने के लिये अग्रिम सूत्र शीतल वारि को स्वकीयमुखहिमवान से उतार कर कह रहे हैं ।
बाह्याभ्यन्तरोपध्योः ।।
बाह्य उपधियों (परिग्रहों) और अभ्यन्तर उपधियोंका परित्याग कर देना व्युत्सर्ग नामक तप है।
व्युत्सर्ग इत्यनुवृत्तेर्व्यतिरेकनिर्देशः पूर्ववत् । उपधीयते बलाधानार्थमित्युपधिः । अनुपात्तवस्तुत्यागो बाह्योपधिव्युत्सर्गः। क्रोधादिभावनिवृत्तिरभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्गः । कायत्यागश्च नियतकालो यावज्जीवं वा।
“प्रायश्चित्तविनप" इत्यादि सूत्र से व्युत्सर्ग इस पदकी अनुवृत्ति हो माने से पूर्वके समान षष्ठी विभक्ति के अनुसार भेद निर्देश करते हुये परली और व्युत्सर्ग का अखय कर देना अर्थात् 'वि+उत्+सृज्+घञ्' यों भावमें प्रत्यय कर व्युत्सर्ग शद्ध बनाया गया है । अतः भाव क्रिया के लिये व्यतिरेक का कथन करनेवाली "बाह्याभ्यन्तरोपध्योः " इस सूत्र मे द्विवचनान्त षष्ठी विभक्ति कही गयी है। पहिले, बाईसवे, तेईसवे, और पच्चीस सूत्रोमे अभेद को कह रहे प्रथमा विभक्तिवाले पद है, किन्तु चौवीसवे और छब्बीसवे सूत्र मे वैयावृत्त्य करना और परित्याग कर देना यों विधेय ल को क्रियाओं की अपेक्षा षष्ठी विभक्ति डाली गयी है। (कर्तृकर्मणोः कृतिषष्ठी ।