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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे
रहे उस प्रसिद्ध पाठक से जो शास्त्रज्ञान पढा जाता है, इस कारण यह उपाध्याय है, उप्+अधि+इण+घञ्+ सु =उपाध्यायः ।
भूम या प्रशंसा अथवा अतिशय अर्थ मे मत्वर्थीय वित् प्रत्यय कर तपस्वी शब्द बनाया जाता है । महान् उपवास, रसपरित्याग, कायक्लेश आदिका प्रमोद सहित अनुष्ठान करनेवाला मुनि तपस्वी कहा जाता है ।
जिनागम के शिक्षा लेने की टेव को धार रहा व्रतधारी संयमो शैक्ष्य कहा जाता है ।
रोग, उपसर्ग आदि करके जो शारीरिक क्लेश उठा रहा है, वह व्रती ग्लान समझा जाता हैं ।
वृद्ध यमियों की संतति ( मण्डल) गरण है। दीक्षा देनेवाले आचार्य महाराज का संघात (दीक्षित परिमण्डल) कुल हैं। ऋषि, मुनि, यति, अनगार इन चार के नग्न साधुओं का समुदाय संघ कहा जाता है ।
बहुत काल दीक्षित हो रहे मुनि साधु माने गये हैं । अत्यन्त सुंद• हो रहे मुनि मनोज्ञ हैं, अथवा विद्वत्ता, वक्तृता, महान् कुलमे उपजना, अनेक लोकोपकारी कार्य करना, सर्वज्ञ आम्नाय अनुसार ग्रन्थ बनाना आदि गुणों करके जो जन समुदाय द्वारा सम्माननीय हो रहें हैं, बे मनोज्ञ है । चौथे गुणस्थानवाले असंयमी सम्यग्दृष्टि भी मनोज्ञ कहें जा सकते हैं ।
उन आचार्य आदि दशों प्रकार के व्रतियों पर शारीरिक व्याधि परीषह, मिथ्यादृष्टि हो जानेका प्रसंग, मानसिक व्याकुलता, आदि विघ्नोंके उपस्थित हो जाने पर निर्जीव औषधि, खाद्यपेय पदार्थ, आसन आदि उपकरणों द्वारा उनका प्रतीकार करना वैयावृत्य है |
यदि बहिरंग औषधि खाद्य आदि सामग्री मिलनेका असंभव हो जाय तो अपने शरीर करके उन आचार्य आदिकों के मनोऽनुकूलपन से क्रिया करना भी वैयावृत्य हैं ।
वह वैयावृत्य तो अन्य ओर से चित्तवृत्ति का निरोध करते हुये चित्तवृत्ति की एकाग्रता को धारण करना, ग्लानिका अभाव हो जाना, प्रवचन ( उत्कृष्ट वचनवाले साधु या आगम ) की वत्सलता और स्वामीसहितपन, दुःखप्रतीकार आदि को प्रकट करने के लिये किया जाता हैं । अर्थात् सेवा या वैयावृत्य करनेवाले पुरूषोंका योग मिल जाने पर व्याधिपीडित मुनिका चित्त ध्यान मे संलग्न हो जाता है। सेवकों का सेव्य