________________
नवमोध्यायः
२१५)
'मुभिके कफ, नासिका मल, मूत्र, पुरीष, आदि मलोंका धोना हठाना आदि क्रिया अनुसार निविचिकित्सा अंग पुष्ट होता है । सेवक के प्रवचन की वत्सलत्व गुण को पुष्टि मिलती है। प्रकृष्ट है वचन जिनके प्रकृष्ट जो वचन, इत्यादि निरुक्तियों करके प्रवचन शव द्वारा देव, शास्त्र, गुरु, बक्ता, वाग्मी, वादी इन सबका ग्रहण हो जाता है। सेव्य मुनिको अपने सम्भालनेवाले स्वा मयों का भी आत्मा मे संवेदन होता रहता है । जोकि जघन्य या मध्यम श्रेणी के साधुओंको कदाचित् अभीष्ट हो रहा है, उत्तम श्रेणीके साधु तो वैयावृत्य किये जाने और नहीं किये जाने दोनो दशा मे समान रूप से आत्म ध्यानस्थ रहते हैं ।
यहाँ कोई यह पूछ सकता था कि इस सूत्र मे आचार्य आदि बहुत मुनियोंके नाम क्यों गिनाये हैं ? संघकी वैयावत्य या गणकी वेयावत्य मात्र इतना कहने से सभी प्रयोजन सध जाता है। इसका समाधान करने के लिए ग्रन्थकार कहते हैं कि आचार्य आदि बहुतो मे वैयावृत्य करनेका उपदेश दे देने से किसी न किसी में किसी भी सेवक की नियम करके वेयावत्य करने की प्रवृत्ति हो जाय,इस सिद्धांत का ज्ञापन करने के लिये आचार्य आदि बहुत से व्रतियोंका इस सूत्रमे विशदतया प्ररूपण किया गया है । सूत्रोक्त पद व्यर्थसारिखे होकर अपरिमित अर्थका ज्ञापन कराते हुये पुनः सार्थक हो जाते हैं।
अथ स्वाध्यायप्ररूपणार्थमाह;
वैयावृत्य के अनन्तर अब प्रसंग प्राप्त हो रहे स्वाध्याय तपका प्ररूपण करने के लिये श्री उमास्वामी महाराज इस अग्रिम सूत्रको स्पष्ट कह रहे हैं। वाचनापच्छनानुप्रेक्षाभ्नायधर्मोपदेशाः ॥२५॥
आप्तोक्त ग्रन्थोंकों वाचना, सर्वज्ञ आम्नाय से चले आ रहे ग्रन्थोंके प्रमेयोंमे संशयच्छेद या निर्णय के लिये विशिष्ट ज्ञानीको पूछना, जान लिये गये विषयका मनसे चिंतन करना, द्वादशांग वाणोके साक्षात् या परम्परा से प्राप्त हुये जैन वाङमय का शुद्ध घोकना और धर्मोपदेश देना या सुनना, यों पांच प्रकारका स्वाध्याय तप है।।
स्वाध्याय इत्यनुवर्तमानेनाभिसंबंधः । निरवद्यग्रन्थार्थोभयप्रतिपादनं वाचना। संशयच्छेदाय निश्चितबलाधानाय वा परानुयोगः पृच्छना। अधिगतार्थस्य मनसाभ्यासोऽनुप्रेक्षा। घोषशुद्धं परिवर्तनमाम्नायः । धर्मकथाद्यनुष्ठानं धर्मोपदेशः । प्रज्ञातिशयप्रशस्ताध्यवसायाद्यर्थं स्वाध्यायः । कथमयमंतरंगरूप इत्याह ।