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नवऽमोध्यायः
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श्राचार्यप्रभतीनां यद्दशानां विनिवेदितं । वैयावृत्यं भवेदेतदन्वर्थप्रतिपत्तये ॥१॥
आचार्य, उपाध्याय आदि दश प्रकारके मुनियोंका जो वैयावृत्त्य करना इस सूत्र मे विशेष रूपेण निवेदन किया जा चुका है, यह तो वयावृत्य शद्ध के प्रकृति प्रत्यय अनुसार निकाले गये अर्थ की प्रतिपत्ति कराने के लिये हो सकता है। अर्थात् किसी जीवके ऊपर व्याधि, परीषह, उपसर्ग, मिथ्यात्व, आदि विपत्तियोंका प्रसंग आ जाने पर काय की चेष्टा अथवा अन्य द्रव्य करके उन व्याधि आदिकों का प्रतीकार कर देना वैयावृत्य है । गुगण मे राग करने की बुद्धि से संयमी के पावोंको दबाना या अन्य भी संयमी का उपकार करना, प्रासुक औषधि खाना, पीना, कराना, आश्रय, काठ का तकिया, तृणों की शेय्या, आदि उपकरणों करके कष्टों को हटाना अथवा उनका श्रद्धान दृढ रखना इत्यादिक सब वैयावृत्य है। वैयावृत्य इतने बडे शब्दकी निरुक्ति करके ही उक्त अर्थ निकल पड़ता है। श्रावक के उत्तर गुणों मे श्री समन्तभद्र आचार्य ने वैयावत्य रिक्षाव्रत कहा है और सूत्रकार महाराज ने अतिथि संविभाग कहा हैं। विधि, द्रव्य दोता, पात्र, प्रतिग्रह आदिका लक्ष्य रखते हुये नवकोटिसे विशुद्ध हो रहे दाता का संयमियों के लिये दान देना भी वैयावृत्य है।।
आचरंति तस्माद् व्रतानीत्याचार्यः । उपेत्य तस्मादधीयत इत्युपाध्यायः । महोपवासाद्यनुष्ठायी तपस्वी। शक्षाशीलः शैक्षः, रुजादिक्लिष्टशरीरो ग्लानः । गणः स्थविरसंततिः। दीक्षकाचार्यसंस्त्यायः कुलं । चातुर्वर्ण्यश्रमणनिवहः संघः। चिरप्रवजितः साधुः । मनोज्ञोभिरूपः । संमतो वा लोकस्य विद्वत्त्ववक्तृत्वमहाकुलत्वादिभिः, असंयतसम्यग्दृष्टिर्वा । तेषां व्याधिपरीषहमिथ्यात्वाद्युपनिपाते तत्प्रतीकारो वैयावृत्त्यं बाह्यद्रव्यासम्भवे स्वकायेन तदानुकूल्यानुष्ठानं च । तच्च समाध्याधाना विचिकित्साभाव प्रवचनवात्सल्याद्यभिव्यक्त्यर्थ । बहूपदेशात् क्वचिनियमेन प्रवृत्तिज्ञापनाय भूयसामुपन्यासः ।
आचार्य आदि शब्दों की निरुक्ति अनुसार अर्थ यों है कि सम्यग्ज्ञान चारित्र के आधार हो रहे उनसे प्राप्त हो रहे व्रतों का आचरण किया जाता है,इस कारण से आचार्य हैं । दर्शन, ज्ञान, चारित्र, वीर्य, तप इन पांच आचारों का स्वयं आचरण करते हुये जो दूसरे भव्यों को भी आचरण कराते हैं, अतः ये आचार्य हैं।
विनय से प्राप्त होकर, व्रत, शील, भावना और विशिष्ट ज्ञानके आधार हो