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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
हो रही अध्यात्म विनय है और चौथी व्यवहारनय का विषय होकर बाह्य अवलम्बनोंसे विशेषित हो रही उपचारविनय है। अन्तरंग पावन पुरुषार्थो से अपने ज्ञान, दर्शन, चारित्रों को बढाकर विशुद्ध करते हुये स्वयं उनका विनय किया जाता है, वस्तुतः यही परमार्थ विनय है । बहिरंग मे गुरु आदिक का विनय तो भावविनय नहीं होकर द्रव्य विनय है। हां, भावविनय का सहकारी कारण होनेसे उपचारविनय भी सादर पालनीय है।
विनय इत्यनुवर्तते,प्रत्येकमभिसंबंधः, ज्ञानविनय इत्यादि । तत्र सबहुमान ज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणादिर्ज्ञानविनयः । पदार्थश्रद्धाने निःशंकितत्वादिलक्षणोपेतता दर्शनविनयः, सामायिकादौ लोकबिन्दुसार पर्यन्ते श्रुतसमुद्रे भगवद्भिः प्रकाशितेन्यथा पदार्थकथनासंभवात् । .
" प्रायश्चित्तविनयवयोवत्य" इत्यादि सूत्रसे विनयशद्व की अनवत्ति कर ली जाती है । उस विधेय दलमे डाल दिये गये विनय पदका प्रत्येक ज्ञान आदि के सीथ परली ओर से संबंध कर लेना चाहिये, तब तो ज्ञान विनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, उपचारविनय इस प्रकार विनय तपके चार भेद हो जाते हैं।
उन चार बिनयोमे पहिली ज्ञानविनय तो यों है कि जिनागम या स्वकोय .शुद्ध ज्ञानका बहुत मान रखते हुए जीव करके सम्यग्ज्ञान के ग्रहण का अभ्यास करना, स्मरण करना, चिंतन करना,आदिक ज्ञान विनय है। "ग्रन्थार्थोभयपूर्ण काले विनयेन सोपधानं च बहुमानेन मन्मितमनिन्हवं ज्ञानमाराध्यम्"। यों अष्टअंगसमन्वित ज्ञान की आराधना करनी पडती है। :
जिनोपदिष्ट पदार्थों के श्रद्धान करने मे निःशंकितपन, अविपरीतपन आदि स्वरूपोंसे सहितपना दर्शनवितय है। "सूक्ष्मं जिनोदित तत्त्वं हेतुमिनैव हन्यते,आज्ञासिद्ध तु तद्ग्राहचं नान्यथावादिनों जिना: '' इस प्रकार तत्त्वो मे अकम्प लोहजल के समान संशयरहित रुचि रखना दर्शन विनय है । सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दना आदिक चौदह-अंगबाह्य श्रुतज्ञानमे अथवा आचार अंग आदि अंगो त । उत्पादपूर्व, अग्रायणीय पूर्व को आदि लेकर त्रिलोक बिन्दुसार चौदह ये पूर्व पर्यन्त, श्रुतसमुद्र मे यथार्थ प्रतिपादन है, इनको प्रणाली के अतिरिक्त अन्य प्रकारों से पदार्थों का कथन करना असंभव है, श्री जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्रकाशित हो रहे शास्त्रसमुद्र में ही पदार्थों का निरूपण सत्यार्थ हो रहा है, ऐसो निःसंशय दृढता दर्शनविनय को प्राण है।
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