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२११) meromoooooooooooooanima
meromeromemortance ... तद्वताश्चारित्रे समाहितचित्तता चारित्रविनयः । प्रत्यक्षेष्वाचार्यादिष्वभ्युस्थानाभिगमनांजलिकणादिरुपचारविनयः, परोक्षेष्वपि कायवामङनोंभिरंजलिक्रिया गुणसंकीर्तनानुस्मरणादिः । ज्ञानलाभाचारविशुद्धिसम्यगारार्धनाद्यर्थ ' विनयभावनं । किमर्थं पुनर्ज्ञानादयो विनया इत्यभेदेनोक्ता इत्याह-
...' उन ज्ञानविनय और दर्शनविनय से सहित हो रहे तपस्वीका चारित्र में समाषियुक्त होकर चित्त लग जाना चारित्र विनय है। ... .......
सन्मुख प्रत्यक्ष किये जा रहे पूजनीय आचार्य, उपाध्याय आदि में' सम्घ्रमें हर्षयुक्त होकर शीघ्र उठ कर आदर करना, उनके अनुकूल गमन करना, हाथ जोड अञ्जलि करना, प्रणाम करना, अनुनय करना, आदिक सब उपचार विनय है, तथा आचार्य आदि के परोक्ष होने पर भी उनको मन मे विचार कर शरीर से अञ्जलि सहित प्रणाम करना, वचन से उनके गुणोंका अज्छा कीर्तन करना और मनसे उनका या उनके गुणोंका बार बार स्मरण, कीर्तन, प्रशंसा आदि करना उपवारविनय है। यों ज्ञान की प्राप्ति, आचार की शुद्धि, समीचीन आराधनाओंको अनुभव, आत्मोय मदुती आदि प्रयोजनों के लिये विनय नामक तपकी भावना की जाती है। . ,
यहां कोई प्रश्न उठाता है कि ज्ञानकी विनय, दर्शन की विनयं यों ज्ञान आदि और विनय का षष्टी विभक्ति अनुसार भेद करके निरूपण करना अच्छा लगता है, किन्तु सूत्रकार ने फिर ज्ञान आदिक चार विनय हैं, यों अभेद - करके इस सूत्र में प्ररूपण किया है, सो वह प्रतिपादन फिर किस प्रयोजन को लिये हुये है ? बताओ। 'ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार इन अग्रिम दो वातिकों को कह रहे हैं।
ज्ञानादयोत्र चत्वारों विनयाः प्रतिपादिताः । । ....... कथंचित्तदभेदस्य सिद्धये परमार्थतः ॥१॥
नादिभाव ना सभ्यग्ज्ञानादि विनयो हि नः । १। । तस्यांतरंगता न स्यादन्यथान्येन वेदनात् ॥२॥
निश्चय नय अनुसार परमार्थ रूप से उन 'ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचारों का विनय तप के साथ कथंचित् अभेद हो रहा है, इस रहस्य की सिद्धि के लिये सूत्रकारने इस सूत्रमे अभेद' प्रतिपादक प्रथमा विभक्ति अनुसार ज्ञान आदिक चार विनयं कह कर समझा दी है। हम जैन दार्शनिकों के यहाँ ज्ञान, दर्शन ऑदि को भावना करना हो अर्थात् अपने पुरुषार्थ से अपनी ज्ञान आदि सम्पत्तियों को जैसे