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नवऽमोध्यायः
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कालका नियम कर कार्योत्सर्ग, कठिन आसम, आदि करना व्युत्सर्ग है । जैसे किसी विद्यार्थी के प्रमाद से वायुद्वारा शास्त्रजीका पत्र उडकर भूमि पर पड गया, इस अविनय का दण्ड गुरूजी ने नमस्कार मन्त्र पढ़ते हुये कार्योत्सर्ग कर लो बतलाया या कुछ देर के लिये एक कठोर आसन से आतपन योग करना आज्ञापित किया, उसी शांति आत्मशुद्धि के लिये व्युत्सर्ग किया जाता है।
तप नामका छठा प्रायश्चित्त तो उपवास करना, ऊनोदर खामा, आदि प्रसिद्ध ही है।
अनेक दिनों से दीक्षित हो रहे शिष्य की किसी अपराध के बन जाने पर दिन, पक्ष, महिना, चातुर्मास, आदि विभाग कर के दीक्षाका त्याग करा देना छेद नामका प्रायश्चित्त है।
पखवाडा, महिना, ऋतु आदि का विभाग कर दूर हो से अपराधी शिष्य को योग्यतानुसार वर्ज देनो परिहार हैं।
महाव्रतोंका मूल से ही उच्छेद कर पुनः नये रूप से दीक्षा प्राप्त कराना उपस्थापना नामका प्रायश्चित्त है । सो यह नौ भी प्रकारका प्रायश्चित्त कौनसा किस किस प्रमाद या दोष के आचरण करने पर हो सकेगा, इस रहस्य को परमोत्कृष्ट आगम से निति कर लिया जाय । देश, काल, अवस्था, शारीरिक संहनन, आत्मोय भाव आदि की अपेक्षा रख रहे उस प्रायश्चित्त विधान का आगम या गुरु परिपाटी के अतिरिक्त अन्य प्रकारों (उपायों) से निर्णय नहीं किया जा सकता हैं । आचार्यों करके मुनियों और गृहस्थों को प्रायश्चित्त दिया जाता हैं । गृहस्थों को गृहस्थाचार्य या सदाचारी उद्भट पण्डित भी प्रायश्चित्त की व्यवस्था कर देते हैं । सिद्धांतरहस्य या प्रायश्चित्त के शास्त्रोंका अध्ययन, अध्यापन करना विशेष अधिकारियो मे ही नियमित है, साधारण रूप से प्रायश्चित्त शास्त्रों का उपदेश, आदेश, नहीं दिया जाता है।
अथ विनयविकल्पप्रतिपादनार्थमाह;
प्रायश्चित्त का प्ररूपण कर चुकने पर अब सूत्रकार महाराज विनय नामक तप के भेदों की प्रतिपत्ति कराने के लिये उस अग्रिम सूत्रका स्पष्ट कथन कर रहें है।
ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः ॥२३॥
ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार इनका विनय करना ज्ञानविनय, दर्शन विनय, चारित्रविनय और उपचारविनय हैं। इनमे तीन तो अशुद्ध निश्चयनयके विषय