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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे
मेरे दुष्कृत्य मिथ्या हो जाय यानी पूर्वं कर्मोंके वशसे या प्रमाद अनुसार मुझसे जो खोटा कृत्य बन गया है, वह मिथ्या पड जाओ, इस प्रकार कहने, विचारने चर्या करने आदि प्रयोगों करके पाप का प्रकट रूपमे प्रतीकार कर देना प्रतिक्रमण है । प्रतिक्रमण नामके प्रायश्चित्त से आत्मा मृदु हो जाता है, भविष्य मे खोटा कर्म करनेमे नहीं प्रवर्तता है ।
उन आलोचन और प्रतिक्रमण दोनोंका सम्बन्ध हो जाने पर आत्माकी शुद्धि हो जाने से जो प्रायश्चित हुआ है, वह तदुभय कहा जाता है । किसी दुष्कृत्यजन्य अशुद्धि से मैला आत्मा आलोचन मात्र से शुद्ध हो जाता है, दूसरे ढंगकी मलिनता को केवल प्रतिक्रमण से हटाकर आत्मा शुद्ध बन बैठता है, किन्तु कोई पापजन्य तीसरी अशुद्धि इस जाति की है, उसका निराकरण तदुभय से ही किया जाता है । जैसे कि किसी दण्डव्यवस्थानुसार अपराधी को शारीरिक क्लेश ( जेलखाना) और आर्थिक हानि ( जुरमाना ) दोनों भुगतने पडते हैं ।
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यहां कोई शंका करता हैं कि सभी प्रतीक्रमणों के पूर्व मे आलोचन किया जाता है, अकेला प्रतिक्रमण कर लेना तो समुचित नहीं हैं, ऐसी दशा मे प्रतिक्रमण और तदुभय मे कोई अन्तर नहीं ठहरा, तब तो " तद्भय का उपादान करना व्यर्थ पडा।कार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना, क्योंकि सभी प्रतिक्रमण यद्यपि आलोंचनपूर्वक होते हैं, किन्तु उस प्रतिक्रमण मे तो गुरूजी द्वारा विनयपूर्ण आज्ञा प्राप्त कर चुके शिष्य करके ही आलोचन करना पडता है, और तदुभय मे तो गुरुजी करके ही आलोचन और प्रतिक्रमण दोनों का विधान किया जाता है, यों प्रतिक्रमण और तदुभय मे साष्ट अन्तर है ।
संसक्तान्नपानोपकरणादीनां विभजनं विवेकः । व्युत्सर्गः कार्योत्सर्गादिकरणं । तपोनशनादि, दिवसपक्षमासादिप्रव्रज्या हापनं छेदः । पक्षमासादिविभागेन दूरतः परिवर्जनं परिहारः । पुनर्दीक्षा प्रापणमुपस्थापना । तदिदं नवविधमपि प्रायश्चित्तं कि कस्मिन् · प्रमादाचरिते स्यादिति परमागमादवसेयं, तस्य देशकालाद्यपेक्षस्यान्यथावसातुमशक्यत्वात् । मिलजुल कर व्यवहार मे आ रहे खाने पीने, उपकरण धरने, शास्त्र विराजमान करने आदि का पृथग्भाव कर देना विवेक हैं । अर्थात् जो मुनि एक साथ खाते, पीते, बैठते यात्रा करते हैं, अपराधी शिष्यको उन व्यवहारो मे से अलग कर दिया जाता है, यह विभाग करना विवेक नाम का प्रायश्चित्त है । लोक मे भी अपराधी को जाति बिरादरी से यथायोग्य अलग कर देना दण्ड चला आ रहा है ।