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नवमोध्यायः
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सरल बुद्धिसे स्वकीय दोषोंका अन्यनातिरिक्त कथन कर देता है, उसी प्रकार छलरहित होकर दशदोषों कर रहित जो आलोचन किया जायगा वह समीचीन विशिष्ट प्रकार का आलोचन समझ लेना चाहिये।
तच्च संयताश्रयं द्विविषयमेकान्ते संयतिकाश्रयं त्रिविषयं प्रकाशे प्रायश्चित्तं गृहीत्वा कुर्वतोऽकुर्वतश्च कुतश्चित्तपश्चरणसाफल्येतरादिगुणदोषप्रसक्तिः प्रसिद्धव ।
और वह आलोचन यदि मुनिका आचार्य के प्रति होय तो संयमियों का अवलम्ब पाकर हुआ एकान्त स्थलपर केवल दो मे ही होना चाहिये । ( विषयत्वं सप्तम्यर्थः ) अर्थात् संयमी यदि प्रायश्चित्त लेवे तो वहां एकान्तमे गुरू और शिष्य दो ही होने चाहिये, तथा यदि संयमवालो आर्यिका का अवलम्ब पाकर यदि प्रायश्चित्त लिया जा रहा है, तो प्रकाश (एकान्तरहित) प्रदेश में कम से कम तीन प्राणियोमे लिया जाय। अर्थात् आयिकासे कोई प्रायश्चित्त लेवे, या ओयिका किसी आचार्य से प्रायश्चित्त लेवे तो प्रसिद्ध स्थलमे तीन आदि जन अवश्य होने चाहिये, अकेले स्त्री का अकेले पुरुष के साथ एकान्त स्थलमे वार्तालाप आदि करना निषिद्ध हैं।
आचार्य महाराज से प्रायश्चित्तको ग्रहण करके श्रद्धापूर्वक उस प्रायश्चित्त को करनेवाले मुनिके तपश्चरण की सफलता, आत्मीय निर्दोषता, चारित्रविशुद्धि आदि गुणोंका प्रसंग मिल जाना प्रसिद्ध ही है और जो लज्जा, दुर्बलता, तिरस्कार, हीनशक्ति अश्रद्धा आदि किसी भी कारण से उस गृहोत प्रायश्चित्त को नहीं कर रहा है, उस शिष्यके तपश्चरण की निष्फलता, सदोषता, पापबंध, असंयम, आदि दोषोंका प्रसंग हो जाना भी प्रसिद्ध ही है। अतः अतीचार या दोषों से आत्माको बचाकर सर्वदा शोधता रहे।
जो साहुकार अपने लेने, कर्ज, व्याज, भाडा, हानि, लाभका विचार नहीं रखता है, अन्धाधुंद होकर उधार बोटता है, अपव्यय करता है, वह कुछ ही दिनों में नष्ट (वरबाद) हो जाता है । उसी प्रकार मुमुक्षु संयमीको निर्दोष आलोचन द्वारा अपने दोषोंका निवारण कर चारित्र विशुद्धि करते हुये शीघ्र निःश्रेयसंप्राप्ति का सतत प्रयत्न करते रहना चाहिये ।।
मिथ्यादुष्कृताभिधानाधभिव्यक्तप्रतिक्रिया प्रतिक्रमणं । तदुभयसंसर्गे सति शोधनात्तदुभयं । सर्वस्य प्रतिक्रमणस्यालोचनपूर्वकत्वात् केवलं प्रतिक्रमणमयुक्तमिति चेन्न । तत्र गुरूणाभ्यनुज्ञातेन शिष्येणैवालोचनकरणात् । तदुभयस्मिन् गुरुणवोभयस्य
विधानात् ।