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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
अपने छोटे छोटे दोषों को जान बूझकर छिपा जाता है, मोटे दोषोंको कह देता है । महाकठिन दण्ड प्राप्त होने के भयसे बडे दोषोंका संवरण करके मात्र छोटे छोटे दोषोंका गुरु के सामने कथन करना पांचवां दोष है।
गुरुजो महाराज, इस प्रकारके दोष हो जानेपर किसी को क्या प्रायश्चित्त दिया जा सकता है ? इस छलपूर्ण उपायसे दोषोंको लुका छिपाकर गुरू की उपासना करना यह छठा दोष है । या "पृच्छनं" पाठ मान लेने पर पूछना, अर्थ किया जाय।
पखवाडे, चौमासे, या वर्षके अन्तमे कियो जानेवाली अनेक मुनिजनोंकी आलोचनाओंके शद्बोसे व्याकुल हो रहे अवसर पर व्याक्षिप्त मनवाले आचार्य महाराज के सन्मुख स्वकीय दोषोंका निवेदन करना सातवां दोष है।।
गुरुजी के द्वारा समझाकर दिया गया यह प्रायश्चित्त (दण्डव्यवस्था) क्या आगम पद्धति मे युक्त है ? अथवा क्या प्रायश्चित्तशास्त्र अनुसार समुचित नहीं है ? इस प्रकार शंका रखते हुये शिष्य का अन्य आचाय गुरूके सन्मुख प्रश्न उपस्थित करना आठवां दोष है । आठवे दोषमे गुरू के प्रति अश्रद्धा और अपनी दुर्बलता व्यक्त की है।
बहुत बडा भी प्रायश्चित्त ले लिया गया कुछ दृष्ट फल नहीं करता है, इस प्रकार अपने मनमे अच्छी मान ली गयी कुभावना पूर्ण चिंतना कर गुरूके प्रति दोषोंका नहीं निवेदन करता हुआ आलसी मुनि अपने समान हो रहे दूसरे सहवासीके सन्मुख हो प्रमादोंका निवेदन कर देता हैं, यह नोमा दोष है।
नौमा दोषवाले को गुरु के प्रति अश्रद्धा भाव, परलोक का नहीं मानना, अतोंन्द्रिय पदार्थों को इष्ट नहीं करना, आत्मीय शुद्धिका अभाव, अनास्तिक्य आदिक ऐब लगे हुये हैं।
___ अपने समान दोषवाले दूसरे शिष्य करके गृहीत हो चुके प्रायश्चित्तको मान लेना कि इसो प्रायश्चित्त को मैं ग्रहण कर लूं, सबके सन्मुख कहने मे बडी बुराई होगो इस प्रकार अपने दुःश्चरित्रोंको छिपा लेना दशवां दोष है।।
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, अनुसार दंडावस्था बदलती रहती है। जज साहब एक अपराधी को सात वर्ष की सजा देते हैं; उसी प्रकार के दुसरे अपराधी को केवल तीन वर्पका सजा वोलते हैं । इसी प्रकार अन्तरंग भावों और परिस्थितियों के वेत्ता आचार्य महाराज अपराधी शिष्योंको अनेक प्रकारकी दंडव्यवस्था बताते हैं। यों आलोचन के वश दोष हैं, उनका परित्याग कर गुरूजो के सन्मुख शीघ्र ही अपने अपराध को देर न कर कह देना चाहिये, जैसे कि कपटरहित बालक अपनी स्वाभाविक