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नवऽमोध्यायः
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आलोचनादयो भेदाः प्रायश्चित्तस्य ते नव । यथागममिह ज्ञेया निरवद्यप्रवृत्तये ॥१॥
प्रायश्चित्त के प्रसिद्ध हो रहे वे आलोचना आदिक नौ भेद आगम अनसार जान लेना चाहिये, जोकि लगे हुए दोषोंका निवारण करते हुए भविष्य में निर्दोष प्रवृत्ति कराने के लिये उपयुक्त है।
तत्र गुरवे प्रमादनिवेदनं दशदोषविजितमालोचनं। प्रायश्चित्तलघकरणार्थमुपकरणदानं,यदि लघु मे शक्त्यपेक्षं किंचित्प्रायश्चित्तं दीयते तदाहं दोषं निवेदयामीति दीनवचनं, परादृष्टदोषगहनेन प्रकटदोष निवेदनं, प्रमादालस्याभ्यामल्पदोषावज्ञानेन स्थूलदोषप्रतिपादनं, महादोषसंवरणेनाल्पदोषकथनं, ईदृशे दोषे किं प्रायश्चित्तमित्युपायेन प्रच्छन्नं, बहुयतिजनालोचनाशद्वाकुले स्वदोष निवेदनं, किमिदं गुरूपपादितं प्रायश्चित्तं युक्तमागमे न वेत्यत्यन्यगुरुप्रश्नः,महदपि प्रायश्चित्तं गृहीतं न फलकरमिति संचित्य स्वसमानाय प्रमादावेदनं,परगृहीतस्यैव प्रायश्चित्तस्यानुमतेन स्वदुश्चरितसंवरणं, इति दशालोचनदोषास्तेषां वर्जनमात्मापराधस्याश्वेव निर्माय बालवदजुबुध्याभिधानं तद्विशिष्टमालोचनं सम्यगवगंतव्यं ।
उन नौ प्रकार प्रायश्चित्तों में पहिला आलोचन यों हैं कि एकान्त मे विराजमान हो रहे प्रसन्न मनवाले गुरु के लिये (सन्मुख) शिष्य का विनय सहित होकर अपने प्रमादकृत अपराधोंका वश दोषोंसे विजित हो रहा स्पष्ट निवेदन कर देना आलोचन है।
वे दशदोष इस प्रकार है कि गुरु महाराज प्रायश्चित्त लघु कर देवे इसके लिये पिच्छ, कमंडल, आदि उपकरणोंका दान करना पहिला दोष है। उपकरण दे देनेपर मुझे हलका प्रायश्चित देंगे ऐसा विचार कर पुस्तक आदि देना दोष समझा गया हैं।
शारीरिक प्रकृति से मैं दुर्बल हूं, पोडित हूं, उपवास आदि वडे दण्डोंको झेलने के लिये समर्थ नहीं हो सकता हूं, यदि गुरुजी मेरी हीनशक्ति की अपेक्षा कर । कुछ हलका प्रायश्चित्त दे देवे, तब तो में उनके सन्मुख दोषोंका निवेदन किये देता हूं, इस प्रकार दीनतापूर्ण वचन कहना दूसरा दोष है।
दूसरे प्राणियों करके नहीं देखे गये दोषों को छिपाकर दूसरोमै प्रकट हो चुके दोषोंका ही मायाचार पूर्वक निवेदन करना तीसरा दोष है।
प्रमाद और आलस्यसे छोटे छोटे (सूक्ष्म) दोषोंका तिरस्कार करते हये केवल स्थूल दोषोंका गुरुजी के सामने प्रतिपादन करना चौथा दोष है। यह अपराधी