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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
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कार्योंत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग है। उपवास आदि करना तप है। कुछ दिनों की दीक्षा का त्याग करा देना छेद है । पखवाडा, महीना, आदि के लिये दूर छोड देना परिहार है। वर्तमान की दीक्षा का छेद कर पुनः नये तौर से दीक्षित करना ( होना ) उपस्थापना है।
___ यह नौ प्रकारका प्रायश्चित्त है।
लोक मे भी घृणित पदार्थ को देखकर थूक देनेसे या मुहसिकोड, आंख हटाकर वैराग्य संपादक शब्द बोलते हुए करुणापूर्ण भावों द्वारा चित्त की ग्लानि मिटा ली जाती है । परमार्थतः जीव की अन्तरंग शुद्धवृत्तिओंसे दोष दूर होकर आत्म विशुद्ध हो जाता है।
प्रायश्चित्तस्य नवविकल्पाः। प्रमाददोषव्युदासभावप्रसादनःशल्यानवस्थाव्यावृत्तिमर्यादात्यागसंयमदाढर्यभावनादिसिध्यर्थं प्रायश्चित्तं विशुद्धयर्थमित्यर्थः तस्यालोचनादयो निरवद्यवृत्तयो नवविकल्पा भवन्तीत्याह
इस सूत्रमे प्रायश्चित्त के नौ विकल्प कह दिये गये हैं। प्रमाद से किये गये दोषोंका निराकरण करने के लिए प्रायश्चित्त किया जाता है, भावोंकी शद्धिके लिए भी प्रायश्चित्त होता है। कोई अपराध बन जानेसे आत्मा में शल्य लग बैठती है, उस शल्य का परित्गाग कर निःशल्य हो जाना भी प्रायश्चित्त करने का प्रयोजन है। पाप कर चुके जीवका चित्त अव्यवस्थित रहता है, प्रायश्चित्त कर लेनेसे वह चित्तकी लव्यवस्था या अनवस्था व्यावृत्त हो जाती है।
पापी जीव धार्मिक मर्यादाओंका त्याग कर अनर्गल प्रवृत्ति कर बैठता है, प्रायश्चित्त कर लेनेसे पुनः मर्यादा का त्याग नहीं हो पाता है।
प्रायश्चित्त कर लेनेसे संयम पालने मे दृढता हो जाती है, अनित्यपन आदि बारह भावनाओं या पांचव्रतोंको वाग्गुप्ति आदि पच्चीस भावनाओं तथा आत्मीय शुभ भावनाओं की सिद्धिके लिए प्रायश्चित्त किया जाता है ।
अन्यथा पापमे प्रवृत्ति नहीं होना, अप्रशस्त कर्मों की स्थिति, अनुभाग का न्हास हो जाना, आदिक प्रयोजनोंको सोधनेवाला प्रायश्चित्त हैं।
. .. प्रायः का अर्थ अपराध है, चित्तका अर्थ विशेष शुद्धि है, उस अपराध की आत्मामे शुद्धि करना या अपराध को विशद्धि के लिये प्रवर्तना यह प्रायश्चित्त का अर्थ है । उस प्रायश्चित्त के निर्दोष प्रवृत्ति स्वरूप आलोचना आदिक नौ भेद हो रहे हैं । इस ही सूत्रोक्त सिद्धांत को ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक द्वारा कह रहे हैं। ...