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नवमोध्यायः
वर्तमान सम्बन्धी स्वकीय दुष्कृत्यों का प्रतीकारार्थ मिथ्यापन भावित करना प्रतिक्रमण है।
" पडिक्कमामि भंते, इरियावहिणाए। विरायणाये । अरणागुत्ते । पारणग्गमणे । विज्जुगमणे । हरिदुग्गमणे। उच्चारपस्सवणखेलसिंहाणाये। बियडिपइठ्ठवणियाए जे जीवा । एइन्दिया वा । वेइन्दिया वा । तेइन्दिया वा । चरिंदिया वा । पंचिंदिया वा । णोल्लिदा वा । पेल्लिदा वा । संघट्टिदा वा । संघादिदा वा। उद्दाविदा वा । परिदाविदा वा । लेस्सिदा वा । बिंदिदा वा । छिदिदा वा । ठाणदो वा। ठाणचंकमणदो वा । तस्सविसोहि करणं । जाव अरहन्ताणं । भयवन्तारणं । गमोकारं करोमि । ताव कायं । पावकम्म उच्चरियं । वोसरामि ( जाप्यं देयं ) । णमो अरहंताणं । रामो सिद्धारणं। णमो आयरियाणं । णमो उवज्झायारणं । रणमो लोए सव्वसाहूणं ।
ईर्यापथे प्रचलताद्य मया प्रमादा, - देकेंद्रियप्रमुखजीवनिकायबाधा । निर्वतिता यदि भवेदयुगान्तरेक्षा, मिथ्यातदस्तु दुरितं गुरु (जिन) भक्तितो में।। करचरणतनुविधातादटतो निहतः प्रमादतः प्राणी। ईर्यापथमिति भीत्या, मुञ्चे तद्दोषहान्यर्थ ।
इच्छामिभन्ते ईरियावहमालोचेउं । पुव्वुत्तरदक्खिणपच्छिमचउदिसासु विरिसासु विहरमाणेण, जगुत्तरदिट्ठिणा, ददुव्वा, डव डव चरियाये, प्रमाददोसेण पाणभूद जीवसत्ताणं एदेसि उवघादो कदो वा, कारिदो वा, किरंतो वा, समणमणुदो वा, तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
पापिष्ठेन दुरात्मना जडधिया मायाविना लोभिना, रागद्वेषमलीमसेन मनसा दुष्कर्म यनिर्मितं । त्रैलोक्याधिपते जिनेंद्र भवतः श्रीपादमूलेऽधुना, निन्दापूर्वमहं जहामि सततं निवर्तये कर्मणां ।
इत्यादि रूपसे प्रतिक्रमण किया जा सकता है, जाप्य या सामायिक के समान प्रतिक्रमण करना भी अति आवश्यक है । आलोचन और प्रतिक्रमण दोनों का संसर्ग होते सन्ते आत्मा को शुद्ध करना तदुभय है । कोई दोष केवल आलोचन कर देने से ही प्रशांत हो जाता है। दूसरा दुष्कृत्य केवल प्रतिक्रमण करने पर निवत्त हो जाता है । तीसरा दोष ऐसा हैं जिसका कि आलोचन, प्रतिक्रमण दोनो प्रायश्चित्त करने पर आत्मशुद्धि हो सकती है।
सबके साथ मिलकर हो रही खाने, पोने, उपकरण रखने आदिका व्यबस्थाओमे से कुछ कालतक के लिये दोषी जीवका पृथग् भाव कर देना विवेक है।