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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
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ये नौ आदिक प्रभेद है। अन्तरंग तपके छह भेद हैं और उन छह में से पांच के नव आदिक प्रभेद हैं। इसी तत्त्वको ग्रन्थकार इस अग्रिम वार्तिक द्वारा स्पष्ट कह रहे हैं।
प्रोक्ता नवादयो भेदाः पारध्यानात्ते यथाक्रगं । प्रायश्चित्तादिभेदानां तपसोभ्यन्तरस्य हि ॥१॥
इस सूत्र द्वारा उमास्वामी महाराजने अभ्यन्तर तप संबंधी प्रायश्चित्त, विनय आदिक भेदोंके ध्यानसे पहिले यथाक्रम से वे नौ, चार आदिक प्रभेद नियम करके बहुत अच्छे कह दिये हैं। एक बार किसीके भेद कर पुनः उन भेदोंके जो प्रकार किये जाते हैं, उनको प्रभेद कहते हैं।
यतस्तपसोऽभ्यन्तरस्य प्रायश्चित्तादय एव भेदात्मानो नवादयस्तेषां भेदा इति प्रभेदास्ते । प्राग्ध्यानदिति वचनं यथासंख्यप्रतिपत्त्यर्थम् ।
जिस कारण से कि अभ्यन्तर तपके प्रायश्चित्त, विनय आदिक ही भेद स्वरूप है,इस कारण उन प्रायश्चित्त आदिकोंके नो, चार आदिक जो भेद है, इस कारण वे अभ्यन्तर तपके प्रभेद कहे जाते हैं, पुत्र का पुत्र पौत्र कहलाता है, उसका पुत्र भी प्रपौत्र हो जाता है।
सूत्र में ध्यान से पहिले यह जो निरूपण किया गया है वह संख्या अनुसार प्रभेदों की प्रतिपत्ति करानेके लिए हैं, अन्यथा प्रायश्चित्त आदि छह तपोंका नौ, चार आदि संख्यावाची पांच पदोंके साथ समन्वय नहीं हो सकता था। ध्यान मे पहिले यों कह देने पर तो पांच तपों का पांच संख्यापूर्वक भेदोंके साथ यथासंख्य अन्वय बन जाता है, विषमता नहीं होती हैं ।
तत्रास्य तपोभेदस्य नवविकल्पान् प्रतिपादयन्नाह;
___ अब उन अभ्यन्तर तपोमे से पहिले भेद हो रहे प्रायश्चित्त नामक तपके नौ विकल्पों की शिष्यों को प्रतिपत्ति कराते हुये सूत्रकार महाराज इस अग्रिम सूत्रका परिभाषण कर रहे हैं। अालोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनाः॥२२॥
आलोचन, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना ये प्रायश्चित्त के नौ भेद हैं। गुरु के सन्मुख अपने प्रमादकृत दोषोंका प्ररूपण करना आलोचन है। भविष्यमे दोषों के सर्वथा परित्याग की भावना रखकर