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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे
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वधूतकाल अनशन होता है । पहिले में काल की मर्यादा नियत कर दी जाती है । दूसरे में काल की अवधि नियत नहीं की गयी हैं ।
संयमप्रजागरदोषप्रशमन सन्तोषस्वाध्याय सुख सिद्धयर्थमव मौदर्यं । एकागारसप्तवेश्मैकरथ्यार्धग्रासादिविषयसंकल्पो वृत्तिपरिसंख्यानं ।
संयम का पालन, अच्छा जगते रहना, वात, पित्त, कफ, सम्बन्धी दोषोंका बढिय शांत हो जाना, स्वल्प अन्न में सन्तोष हो जाना, सुखपूर्वक स्वाध्याय हो जाना इन सिद्धियों के लिये अवमौदर्य तप किया जाता है । भिक्षाको दुर्लभ बनानेके लिये मुनिका एक घर मे हो जाना, सात घर उल्लंघन करना, एक ही गली में जाना, आधा कौर खाना अथवा ग्राम पाठ माननेपर आधे ही गांव में गोचरी के लिए गमन, सींगमे गुडकी भेली अटकाकर बैल का मिल जाना, आदि विषयोंका संकल्प करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है ।
दांतेंद्रियत्वतेजोहानिसंयमोपरोधव्यावृत्याद्यर्थं घृतादिरसपरित्यजनं रसपरित्यागः । . रसवत्परित्याग इति चेन्न, मतोर्लुप्तनिर्दिष्टत्वात् शुक्लपट इत्यादिवत् । अव्यतिरेकाद्वा तद्वत्संप्रत्ययः । सर्वत्यागप्रसंग इति चेन्न प्रकर्षगतेः । प्रकृष्ट रसस्यैव द्रव्यस्य त्यागसंप्रत्ययात् । प्रतिज्ञातगंधत्यागस्य प्रकृष्टगंधकस्तूरिकादि त्यागवत् ।
इन्द्रियों का दमन हो जाना, प्रकृतिमे उत्तेजित होने की हानि हो जाना, संयम को रोकनेवाली लम्पटता की व्यावृत्ति हो जाना गरिष्ठता जन्य प्रमाद की हीनता इत्यादिक प्रयोजन को साधने के लिये घी, दही, दूध, आदि रसोंका कुछ दिनों तक या आजन्म परित्यागे कर देना रसपरित्याग है ।
यहां कोई शंका उठाता है कि रसशद्व गुणको कह रहा है, गुरणीको छोड़कर अकेले गुणका ग्रहण या त्याग नही किया जा सकता है, अतः रसवाले घृतादि पदार्थोंका त्याग कर देना कथन समुचित हुआ तब तो रसवत्परित्याग ऐसा चौथे तप का नाम होना चाहिये, " रसपरित्याग शद अशुद्ध जचता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना, क्योंकि तद्वान् अर्थ को कह रहे मतुप् प्रत्यय का लोप हो चुकनेपर यह रसपरित्याग कहा गया है, मतुप् प्रत्यय के अर्थ मे अच् प्रत्यय भी हो जाता हैं, जिसको कि मत्वर्थीय अच प्रत्यय कहते हैं,
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गुणे शुक्लादयः पुंसि गुणिलिंगास्तु तद्वति " गुणवाचक शब्द कदाचित गुणीको भी कहने मे प्रवर्त जाते हैं, मतुप् का लोप कर अनेक शब्द प्रयुक्त किये जाते हैं, जैसे कि शुक्लवस्त्र, मधुर आम्र, शीतजल, आदि प्रयोग साधु हैं अथवा एक विचार यह भी हैं कि गुरणको छोडकर गुणी नहीं वर्तता है, यो गुण और गुणीका अभेद हो जाने के कारण गुण से उस गुणकी धारने वाले की समीचीन प्रतीति हो जाती है, रसवाले द्रव्यका त्याग करनेपर ही रसका त्याग घटित हो सकेगा, अन्यथा नहीं ।
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