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नवमोध्यायः १९५ .........
__ अनशनावमौदर्यवृत्ति परिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्य तपः ॥१६॥
____अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये छह बाहय तप हैं।
कषाय, विषय, आरम्भोंका परित्याग करते हुये चार प्रकार आहार का त्याग करना वह अनशन है ।
संयम की वृद्धि के लिए एक ग्रास, दो कौर आदि न्यून खाना अवमौदर्य हैं।
लालसा की निवृत्ति के लिए भोजन सम्बन्धी अटपटो आखडी कर लेना या प्रवृत्तिकोंकी परिसंख्या कर लेना वृत्तिपरिसंख्यान है।
इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करनेके लिए घी, दही, दूध, मिष्टान्न, तेल, नोन रसोंका यथायोग्य त्याग करना रसपरित्याग है ।
. ध्यान की सिद्धि के लिए पशु, पक्षो, जन्तुओंसे रीते एकान्त स्थानोंमें सोना; बैठना, विविक्तशय्यासन है। परीषहजय की शक्ति बढाने के लिए प्रतिमायोग धारण करना, शरीर खेदावह आसन लगाना आदिक कायक्लेश है। बहिरंग द्रव्यको अपेक्षासे ये तप किये जाते हैं,या दूसरे जीवोंको भी इनका प्रत्यक्ष हो जाता है,तिस कारण ये छह बाह्य तप कहे गये हैं।
दृष्टफलानपेक्षं संयमप्रसिद्धिरागोच्छेदकर्मविनाशध्यानागमावाप्त्यर्थमनशब । तद्विविधं अवधृतानवधृतकालभेदात् ।
“सम्यग्योज्ञनिग्रहो गुप्तिः" इस सूत्रसे सम्यकपदको अनुवृत्ति चली आ रही हैं, अतः समीचीन अनशन वही है जो कि कुछ भी मन्त्रसिद्धि यशःप्राप्ति, शारीरिक स्वास्थ्य आदिक देखे जा रहे इहलोकसम्बन्धि फलोंकी नहीं अपेक्षा कर किया जा रहा है, संयम की भले प्रकार सिद्धि होना, भोजन मे राग का उच्छेद हो जाना, कर्मोंका विनाश होना, ध्यान
और शास्त्र रहस्य की प्राप्ति हो जाना, इन पार लौकिक श्रेष्ठ फलोंकी प्राप्तिके लिए जो अन*शन किया जायगा वह तपश्चरण समझा जायगा, शेष तो लंघन मात्र है, जो कि अशुभ कर्मोंके उदयसे हुआ और अशुभ कर्मों का ही बंध करानेवाला है और यह शास्त्रोक्त अवशन तो कर्मों के क्षयका और निर्जराका सम्पादक हैं।
वह अनशन तप अवधृतकाल और अनवधूतकाल इन भेदोंसे दो प्रकार है। एक छाक, एक दिन, दो दिन आदि बीचमे देकर उपवास करना अवधुत काल हैं और समाधिमरण को कर रहे गृहस्थ या मुनिके मरणपर्यन्त आहार का परित्याग कर देना अन