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तत्त्वार्थश्रोकवातिकालंकारे
यहां कोई शंकाकार कहता है कि चर्या निषद्या शय्या परीषहोंमें और अरा परोषहमें कोई भेद नहीं हैं, इसलिए परीषह उन्नीस होते हैं, ऐसा कथन करना युक्त है, ऐसा तो नहीं कहना । क्योंकि अरतिमे उपर्युक्त परोषहोंका जय नहीं होता है। चयः निषद्या शय्या और अरति के एकत्वपना युक्त नहीं है, क्योंकि अरतिमे उक्त परीषहों के जीतनेके योगका अभाव है, उन चर्यादिकोंके द्वारा उत्पन्नपीडा को वह अरति परीषह को जीतनेवाला सहन नहीं करता है, इसलिए उन चर्या निषद्या व शय्या परीषहोंको जीतने में भिन्नपना ही है, यों बाईस परीषहोंका कथन, करना ही युक्तिपूर्ण जंचता है । तिस सूत्रोक्तसिद्धांतसे क्या अभिप्राय निकला ? उसको अग्रिमवार्तिकों द्वारा ज्ञात कीजिये।
सकृदेकादयो भाज्याः क्वचिदेकानविंशतिः । विंशत्यादेरसंभतेविरोधादन्यथापि वा ॥१॥ इत्युक्तेर्नियमाभावः सिद्धस्तेषां समुद्भवे ।
सहकारिविहीनत्वं प्रोक्तहेतोरशक्तितः ॥२॥
एक ही वार एक को आदि लेकर उनईस तक विकल्पना योग्य हो रही परीषहें किसी किसी आत्मामे उपज बैठती है । बीस, इकईस आदि परीषहोंका एकदम एक आत्मामैं, उपज जाना संभव नहीं हैं, क्योंकि शीत, उष्णा और चर्या निषद्या शय्याओंका विरोध हैं तथा अन्य प्रकारोसे भी विरोध दोष आ जावेगा, कभी एक हो जाय, कभी दो हो जाय कभी दस, कभी पन्द्रह यों भाज्या, इसप्रकार कथन कर देनेसे उस परीषहोंके डटकर उपजने में नियम का अभाव सिद्ध है, यानी परीषहे होवे ही ऐसा कोई नियम न रहा, मात्र कर्मका उदय हो जानेपर भी अन्य सहकारी कारणों की विशेष रूपेण हीनता हो जानेसे परीषहें नही उपज पावेंगी, जैसे कि जिनेन्द्र के असाता वेदनीय का उदय परीषहोंको नहीं उपजा पाता है। भले प्रकार कह दिये गये ज्ञानावरण, अन्तराय, वेदनीय हेतुओंकी अन्य सहकारी कारणोंसे रहितपनकी अवस्थामें परीषहोंके उपजानेकी शक्ति नहीं हैं, तभी तो मोहनीय कर्मका उदय नहीं होनेसे अनन्तसुखी जिनेन्द्रदेवके भूख, प्यास आदि परीषहे नहीं उपजती हैं।
कि पुनश्चारित्रमित्याह
संवरके छः हेतुओं में से गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परीषहजय इन पांचका प्रतिपादन किया जा चुका है, अब बतलाओ कि फिर छठा हेतु चारित्र भला क्या पदार्थ है ? ऐसी विनीत शिष्यकी रुचि उपजने पर परमोपकारी सूत्रकार इस भग्रिम सूत्र को कह रहे हैं।