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नवमोऽध्यायः
आङभिविध्यर्थः । शीतोष्णशय्यानिषद्याचर्यानामसहभावाच्च कानविंशतिसंभवः । प्रज्ञाज्ञानयोविरोधादन्यतराभावे अष्ट । दशप्रसंग इति चेन्न, अपेक्षातो विरोधाभावात् ।
श्रुतज्ञानापेक्षया हि प्रज्ञाप्रकर्षे सत्यवध्याद्यभावापेक्षया अज्ञानोत्पत्तेः । दंशमशकस्य युगत्प्रवृत्तेरेकोर्नाविशति विकल्प इति चेन्न प्रकारार्थत्वात् । मशक एवेत्ययं परोषहोऽन्यथातिप्रसंगात् । दंशग्रहणात् तुल्यजातीय इति चेन्न श्रुतिविरोधात् । न हि दंशशः प्रकारमभिधत्ते मशकशद्वोपि तत्तुल्यमिति चेन्न, अन्यतरेण परीषहस्य निरूपितत्वात् । न हि शशद्वेन निरूपिते परीष हे मशकशद्वग्रहणं तदर्थमेव युक्तमतः प्रकारोऽर्थान्तर इति निश्चयः । यहां पर आङ् अभिविधि - मर्यादा के अर्थ में हैं । शीत-उष्ण, शय्या - निषद्या-चर्या इन परीषहोंका एक साथ सद्भाव संभव न होनेके कारण उनईस परीषहोंतक एकसाथ होना सम्भव है । यहां कोई शंका करता हैं कि प्रज्ञा व अज्ञान परीषहमे विरोध हैं अर्थात् ये दोनो एकसाथ नहीं हो सकते हैं, इसलिए अठारह परीषहोंका एकसाथ होनेका प्रसंग आवेगा, ऐसा न कहना, अपेक्षाकी दृष्टिसे अर्थ करनेपर दोनोमे विरोध नहीं आ सकता है । श्रुतज्ञानकी अपेक्षा से अधिक ज्ञान प्राप्त होनेपर अवधि आदि ज्ञानोंके अभाव मे खिन्न होकर अज्ञान परीषहकी उत्पत्ति होती है । (ज्ञानकी विशेषताको प्राप्त होनेपर अहंकार उत्पन्न होना प्रज्ञा परीषह है ।) इसीप्रकार दंशमशक इन दोनो परीषहोंको दो करना चाहिये, एक करनेपर उनईस नहीं होते हैं । सो दो करनेपर उनईस होते हैं। क्योंकि उन दोनों परीषहोंका एकसाथ संभव हो सकता है, ऐसा भी नहीं कहना । दंशमशक प्रकार अर्थमे प्रयोग किया गया है । मशक ही यह परीषह है, अन्यथा अतिप्रसंग हो जायगा । दंशपद ग्रहण करने से मशकका तुल्य जातीय परीषहका ग्रहण है, ऐसा भी नहीं कहना | आगम परंपराका विरोध है । यहां कोई शंका करता है कि ढंश शब्द मशकका प्रकारवाची नहीं हो सकता है । मशक शब्द भी उसके बराबर ही है । ऐसा तो नहीं कहना, क्योंकि किसी एक पदसे ही परीषह का कथन किया गया है । दंश शब्द से परीषह का निरूपण करने पर मशक शब्द उसो अर्थ में प्रयोग नहीं किया गया हैं । अपितु प्रकारांतरको सूचित करने के लिए यह प्रयोग किया गया है, यह निश्चय है ।
चर्यानिषद्याशय्याना मरते र विशेषादेकान्नविंशतित्ववचनमिति
चेन्न, अरतौ परीषहजयाभावात् न हि चर्यानिषद्यादय्यानामरते रेकत्वादेकत्वं युक्तं तत्र अरतो परीषह जयायोगात्, तत्कृतपोडासहनात् परी हजयेग्यत्वमेव तेषामिति
द्वाविंशतिवचनमेव
युक्तम् ॥ तस्मात्
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