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थी । इसलिये विद्यानन्द यह अन्वर्थक नाम जिसका है ऐसे मेरे समन्तभद्र स्वामी श्रद्धास्पद गुरू महाराज हैं । इसलिये अनेक शास्त्र ज्ञानके आधारभूत समन्तभद्र स्वामीका मनमे चिंतन कर स्वर्ग में रहें हुए गुरूओंके सामने तत्त्वार्थं शास्त्रका जो में परिशीलन - अभ्यास किया है उसकी परीक्षा देनेकी इच्छा करनेवाला में छोटे शिष्यके समान जिनका मैंने अभ्यास किया है ऐसे प्रमेयों का निरूपण करूंगा ।
वे समन्तभद्र फिर कौन कौन गुणोंसे भूषित हैं ? कथंभूतं विद्यास्पदं, समन्तभद्रं श्री वर्द्धमानं वे समन्तभद्र आचार्य विद्यास्पद हैं समन्तभद्र हैं और श्री वर्द्धमान हैं । पाटलीपुत्र, कांची, वाराणसी इत्यादि नगरिओमे महाविद्वानोंके साथ वाद करकें - शास्त्रार्थ करके समन्तभद्र आचार्यजीने विजयलक्ष्मी प्राप्त की थी तथा शिवकोटि भट्टारक महोदय के सामने आपके नमस्कारभारको धारण करनेमे समर्थ तथा सर्व जगतको आनन्द देनेवाले चन्द्रप्रभ भगवानकी प्रतिमाकी प्रभावना का चमत्कार प्रगट किया था । इन कृत्योंसे जंनधर्मकी ध्वजा सर्व जगतमे आपने फहरायी थी । उनके फहरानेसे जैनधर्मकी विजयलक्ष्मीकी प्राप्ती हुई तथा जैनधर्मकी वृद्धि हुई और विस्तार हुआ । तथा वह जगतमें मान्यताको प्राप्त हुआ । तथा आचार्य महाराजका आत्मगौरव बढ गया । तथा आचार्य महाराजकी मानवृद्धि होनेसे जैनधर्मकी लक्ष्मी बढ गई । वे भद्र महाराज फिर भी कैसे थे ? घातिसंघातघातनं सम्यग्दर्शनादि गुणोंके समूहको नष्ट करनेवाले जो मिथ्यात्वादि कर्मोंका समुदाय उनको नष्ट करनेवाले थे ।
समन्तभद्राचार्यके शरीरमे भस्मकादि रोगोंका समुदाय उत्पन्न हुआ तब उनके शरीरका स्वास्थ्य नष्ट हो गया । उस समय उन्होंने जिनवाणीरूप अमृतधारासे उन रोगों का विनाश किया । अथवा वे समन्तभद्र मुनिराज भावी उत्सर्पिणी कालमे तीर्थंकर होकर ज्ञानावरणादि कर्म समूहका नाश करनेवाले होंगे । इस आशयका वर्णन ऐसा है
बलवत्तर पापके उदयसे नरकनिगोदादि अशुभ गतिमे ये प्राणी गिरकर दुःख भोगेंगे इन प्राणियों को अभयदान में दूंगा ऐसी कृपा आचार्य महाराजके मनमे उत्पन्न होगी और वे स्याद्वाद सिद्धांतका प्रचार कर जैनधर्म की प्रभावना स्वरूप शुभ भावनाके विचारवासनासे आगे के जन्म त्रैलोक्यको आनन्द देनेवाली तीर्थकर प्रकृतिका बंध करेंगे और भविष्यत् उत्सर्पिणी लाकमे तीर्थंकर पदका अनुभव लेकर ज्ञानावरणादि कर्म कर्मका घात करेंगे ।
पुनः कथंभूतं समन्तभद्रं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकम् । यथार्थ रूपसे निर्णय जिनका किया है ऐसें जो जीवादिक पदार्थोंका समूह उसका प्रकाशन करनेके लिये अर्थात् परवादियोंके गर्वको नष्ट करनेवाली यह समन्तभद्राचार्य की वाणी मानो दीप कलिकाओंके समान है। यहां वार्तिकोंके संबंध से प्रदीपका अर्थ लक्षणोंसे जाना जाता है । वार्तिक शब्दका अर्थ बत्ती अर्थात् दीपकी बत्ती यह अर्थ होता है | श्री समन्तभद्र स्वामीकी जो वचनधारास्वरूप प्रदीप कविका है उससें प्रकाशित जीवादिक तत्त्व वे खूब प्रकाशित होते हैं ।