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नवमोऽध्यायः
प्रज्ञानामका मनोज्ञाकार्य सम्पन्न होगा ज्ञानावरणका उदय पाकर प्रज्ञा नहीं हो सकती है । आचार्य कहते हैं यह तो नहीं समझ बैठना क्योंकि ज्ञानावरण के उदयका सद्भाव होने पर मद को उत्पन्न करनेवाली वह प्रज्ञा उपजती है जिनके ज्ञानावरणका विशुद्ध क्षयोपशम है उनका निरहंकार ज्ञान । ज्ञानावरणका उदय होने पर ही स्वल्प ज्ञान में अभिमान उपज बैठता हैं, खाली घड़ा अधिक छलकता है, एक नीतिज्ञ ने कहा है कि-
यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम् । तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः।
यदा किचित्किचिद्बुधजनसकाशादवगतं,
तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः ।
भावार्थ - थोडी सम्पत्ति के समान स्वल्प या सदोष ज्ञानसे गर्व ( ऐंठ ) उपजता है किन्तु परिपूर्ण धनी के समान वहु ज्ञानो के स्तोक भी मद नही पैदा होता है, अतः वह ज्ञान की ही कमी समझी जायगी, जो कि मदसंसक्त प्रज्ञाको पैदा करेगी ।
यहाँ कोई अपना मन्तव्य यों प्रकट करता है कि मद उपजना तो मोहसे होता है मानकषायके उदयसे " मै बडा भारी प्रज्ञाशाली पण्डित हूं " ऐसा गर्व कर बैठता है, अतः प्रज्ञाको मोहके उदयसे मानना चाहिये, ज्ञानावरण के उदयसे नहीं । आचार्य कहते हैं यह तो न कहना, क्योंकि दर्शन और चारित्र के विघातक रूपसे उस मोहनीय कर्म के भेदों को आगमानुकूल गिनाया जा चुका है, उनमे प्रज्ञापरीषहका अन्तर्भाव नहीं हो सकता है, मोहनी यकेक्षयोपशम को धारण कर रहे चारित्रवान मुनि के भी प्रज्ञा परीषहका सद्भाव है, इस कारण मदके अवलेपसे सहित होरही प्रज्ञाका भी निमित्त कारण ज्ञानावरण कर्म ही बन सकता है. जैसे कि मिथ्याज्ञान परोषहका निमित्तकारण ज्ञान । वरण कर्म हैं, इस ही सिद्धांत को परार्थानुमान प्रमाण द्वारा ग्रन्थकार अगलो वार्तिक में कह रहे हैं ।
ज्ञानावरण निष्पाद्ये प्रज्ञाज्ञाने परीषहौ ।
- प्रज्ञावलेपनिवृत्ते ज्ञानावरणतोन्यतः ॥ १॥
प्रज्ञा और अज्ञान परीष हें ( पक्ष ) ज्ञानावरण कर्म करके उपजाई जाती है ( साध्य ) क्योंकि ज्ञानावरण के अतिरिक्त अन्य किसी भी निमित्तसे प्रज्ञाप्रयुक्त मद हो जाकी निवृत्ति है ( हेतु ) । अर्थात् ज्ञानावरणसे ही प्रज्ञासम्बधी मद हो जाना बन बैठता हैं । अथवा " निवृत्तेः " पाठ अच्छा है, अज्ञान यानो ज्ञानाभाव ( नञ्का अर्थ प्रसज्य ) के