________________
१८२)
तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
उत्पादक ज्ञानावरणसे वह भिन्न प्रकारका ही ज्ञानावरण है जो कि साभिमान प्रज्ञा को बनाता है, ज्ञानावरण क्षयोपशम के साथ उसी विलक्षण ज्ञानावरण का उदय सम्मिलित हो रहा है।
अन्यद्धि ज्ञानावरणं प्रज्ञावलेपनिमित्तमज्ञाननिमित्तात् ज्ञानावरणात् । न चैवं ज्ञानावरणोत्तरप्रकृतिसंज्ञाक्षतिस्तस्य मतिज्ञानावरणमात्रोपरोधात् ।
अज्ञान परीषह के निमित्त कारण होरहे ज्ञानावरण से वह ज्ञानावरणकी प्रकृति निश्चयतः न्यारा ही है जोकि प्रज्ञा मे मद के अवलेप कर देने का निमित्त हो रहा है । यदि यहां कोई यह खटका रक्खे कि इस प्रकार भिन्न जातिका ज्ञानावरण माननेपर तो ज्ञानावरण कर्म के उत्तरप्रकृति भेदों की नियत हो रही पांच संख्याका बिगाड़ हो जायगा। प्रन्थकार कहते है कि यह शल्य तो नहीं रखना, क्योंकि उस जात्यन्तर ज्ञानावरण के सामान्य मतिज्ञानावरणमें अन्तर्भाव कर दिया जाता है अर्थात् जैसे आर्य और म्लेच्छ मनुष्यों से न्यारे पतित व्रात्य, ( संस्कारवजित ) मनुष्य मानने पड़ते है " निविशेषं हि सामान्यं भवेत्खरविषाणवत्" यह मन्तव्य भी रक्षित हो जाता है। जबकि सामान्य का विशेष एक सामान्य भी है, ज्ञानचेतना कर्मचेतना, और कर्म फलचेतना इन तीन चेतना थोंसे एक न्यारी भी सामान्यचेतना है।
पांच प्रमाणों से न्यारा नयात्मक ज्ञान भी समीचीन ज्ञान विशेषों में नही गिनाये गये कतिपय विशेषों को सामान्य में हो गर्भित करदिया जाता है। संख्याते शब्द द्वारा विचारे असंख्याते, अनन्ते, कितने भेद गिनाये जा सकते है ? घोड़ों के कितने ही भेद करो, फिर भी टटुआ, लगडा, काना कोई न कोई घोड़ा छूट ही जायगा, जोकि विशेषोंमें गणना अशक्य होने के कारण सामान्य घोड़ो में गिना दिया जाता है। जीव के संसारी और मुक्त भेदों से न्यारे चौदहवें गुणस्थानवर्ती मुनि हैं। अतः उस ज्ञानावरणका भी ज्ञानावरण सामान्य में गर्भित कर लेना चाहिये । मिथ्या, असंयम, और समीचीन संयमसे चौथे गुणस्थान का असंयम न्यारा है। दूसरे गुणस्थान में सम्यक्त्व और मिथ्यात्वसे न्यारा परिणाम है, पञ्च-परमेष्ठियोंसे अन्तकृत् केवलो और सामान्यकेवली अतिरिक्त है, अत छट गये विशेष सब सामान्य के पेटमे डाल दिये जाते हैं।
___अब दर्शन और अलाभपरीषह के अन्तरंग कारण का निरूपण करने के लिये सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्रको कह रहे हैं ।