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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
वादर साँपराय शब्द के ग्रहणसे प्रमत्त आदि चार गुरण स्थानोंका यहां स्वरूप कथन किया गया है। वादर गुणस्थान पदसे नोवां गुणस्थान ही नहीं पकड़ा जाय, किन्तु संयमीके जिन गुणस्थानोंमें मोटी कषाय है यों अर्थकर छठे, सातवे, आठवे नौमें गुणस्थानवर्ती साधुओंका ग्रहण है परोषहोंके विशेष रूपसे निमित्तकाधरण ज्ञानावरण आदिक हे छठे से नौवें गुणस्थानतक उन असाधारण निमित्तोंका प्रक्षय नहीं होने के कारण सभी सामायिक, छेदोपस्थाना, और परिहारविशुद्धि संयमके धारी यतियोंमें सम्पूर्ण वाईसों परीष हो जाने की सम्भावना है, सामायिक और छेदोपस्थापना संयम छठे, सातवे, ओठवे, नौमें, इन चारों गुणस्थानोंमें पाया जाता है, परिहारविशुद्धि संयम तो छठे और सातवें दो ही गुणस्थानों में मिल सकता है ।
____ यहां कोई जिज्ञामु पूछता है कि किस रूपसे यानी व्यक्ति रूपसे या शक्ति रूपसे वे सभी परोषहें उन चार गुणस्थानोंमें विद्यमान है ? बताओ। ऐसी ज्ञातुं इच्छा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार अग्रिमवातिकको कहता ( कहते ) है।
बादरः सांपरायोस्ति येषां सर्वे परीषहाः।
सन्ति तेषां निमित्तस्य साकल्याद्व्यक्तिरूपतः ॥१॥
जिनके स्थूल कषाय है उन मुनियोंके सभी परीष हे व्यक्ति ( प्रकट ) रूपसे हो सकतो है ( प्रतिज्ञावाक्य ) क्योंकि ज्ञानाधरण, अन्तराय आदि निमित्त कारणोंकी सकलता ( पूर्णसामग्री ) व्यक्तिरूपेण विद्यमान है ( हेतुदल ) ॥
अथ कस्मिन्निमित्ते कः परीषहः ?। यहां कोई प्रश्न उठाता है कि किस किस पौद्गलिक कर्मप्रकृति के निमित्त कारण पाजानेपर कौन कौन सी परोषहका हो जाना बन बैठता हैं ? बताओ। इसके उत्तर में श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्र को बोलते हैं।
ज्ञानावरणं प्रज्ञाज्ञाने ॥१३॥ ज्ञानावरण कर्म का उदय होने पर प्रज्ञा और अज्ञान ये दो परोषहें संभव जातो हैं ।
ज्ञानावरणे अज्ञानं न प्रक्षेति चेन्न, ज्ञानावरण सद्भावे तद्भावात् । मोहादिति चेन्न, तभेदानां परिगणितत्वात् । सावलेपायाः प्रज्ञाया अपि ज्ञानावरण निमित्तत्वोपपत्तेः मिथ्याज्ञानवत् । एतदेवाह
___ यहाँ कोई आक्षेप करता है कि ज्ञानावरण का उदय होजाने पर अज्ञान परोषहका हो जाना समुचित, है, किन्तु प्रज्ञा तो ज्ञानस्वरूप हैं, ज्ञानावरगके क्षयोपशमसे