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नवमोऽध्यायः
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क्षुदादिवेदनोद्भुतो नाहतोऽनंतशर्मता । निराहारस्य चाशक्तौ स्थातुं नानंतशक्तिता ॥६॥ नित्योपयुक्तबोधस्य न च संज्ञास्ति भोजने । पाने चेति क्षुदादीनां नाभिव्यक्तिर्जिनाधिपे ॥१०॥
यह बात भी विचारणीय है कि अर्हन्तपरमेष्ठी के क्षधा आदि वेदनाओं के प्रकट हो जाने पर अनन्तसुखोपना नहीं रक्षित रह सकता है । बिचारे भूखे, प्यासे को सुख कहां, धरा है ? तथा भूखे भगवान् को आहार नहीं मिलने पर चलने, फिरने, बैठे रहने की शक्ति नहीं रहेगी। बैठे रहने की सामर्थ्य नहीं रहने पर केवली के अनन्तशक्तिपता नहीं बन सकता है, जैसे कि हम लोग भूखे रहने की दशा में न सुखी हैं और बलशाली भी नहीं हैं । अनन्तसुख और अनन्तबल के ठहरे रहने की तो फिर बात ही क्या है ? । जब भगवान सर्वदा केवलज्ञान उपयोग में उपयुक्त बने रहते हैं ऐसे भगवान् को खाने, पीने, में संज्ञ, (मतिज्ञान) ही नहीं बन पाती हैं, इस कारण जिनेन्द्र अधिपति में क्षुधा आदिक परीषह को अभिव्यक्ति नहीं है, शक्ति भले ही कह लो, यों तो धर्मात्मा सज्जन पुरुषों में भी हिंसा करने, कुशील सेवने, मांसभक्षण की शक्तियां विद्यमान हैं। प्रचण्ड मनुष्य भी क्षमा ब्रह्मचर्य को धारण कर सकते हैं, ऐसी मात्र शक्ति का कानो कौडी भी मूल्य नहीं उठता है।
अथ बादरसांपराये कियन्तः परोषहा इत्याह
अब सूत्रकार महाराज के सन्मुख किसी विनयशील शिष्य का प्रश्न है कि सूक्ष्मसापराय आदि गुणस्थानों में आपने कतिपय परीषहें बताई, किन्तु सम्पूर्ण परीषहें भला कहां सम्भवती हैं ? स्थूलकषायवाले छठे आदि गुणस्थानों में भला कितनो परीषहें हैं ? बताओ । ऐसी जिज्ञासा प्रकट करनेपर सूत्रकारमहाराज इस अगिले सूत्र को कह रहे हैं।
बादरसांपराये सर्वे ॥१२॥ स्थूल कषाय को धारनेवाले छठे, सातवें, आठवें, नौमे, गुणस्थानवाले मुनियों सभो बाईसों परीषहें सम्भव जाती हैं।
___ बादरसांपरायग्रहणात् प्रमत्तादिनिर्देशः निमित्तविशेषस्याक्षीणत्वात् सर्वेषु सामायिक छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसंयमेषु सर्वसंभवः । केन रूपेण ते तत्र सन्तीत्याह--