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तत्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
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चदित्यशेषसामग्रीजन्या भिव्यज्यते कथं । तद्वैकल्ये सयोगस्य पिपासादेरयोगतः ॥ ८ ॥
-BURTAUNI------------
भूख, प्यास, आदि बाधाओं के प्रकट होने में केवल यह एक वेदनीय का उदय ही कारण नहीं प्रतीत हो रहा है । किन्तु असातावेदनीय का उदय होने पर भी मोह का उदय हो जाने से उन क्षुदा आदि की प्रकटता होती है । भूँख की पीडा से पेट के पतलापन या खाली हो जाने की प्राप्ति हो जाने पर भूख, प्यास, लगती हैं, किन्तु तेरहवें गुणस्थान में मोह का क्षय हो जाने पर वह रिक्तोदरपने की प्राप्ति नहीं देखी जाती है । एक बात यह है कि भोज्य पदार्थ के आहार करने की अभिलाषा हो जाने पर भूख लगती हैं । आहार की अभिलाषा होने पर भी असातावेदनीय के उदय विना क्षुदा नहीं लगती है । किन्तु भगवान् के मोह का अभाव हो जाने से आहार की अभिलाषा ( इच्छा) भो नहीं हैं ।
दूसरी बात यह है कि सामने धरे हुये भोजन का उपयोग प्रारम्भ कर देने से भूँख के अंतरंग कारण क्षुधावेदनीय की उदीरणा हो जाती हैं, जो कि छठे गुणस्थान सम्भवती हैं । भोजनके उपयोग का असद्भाव हो जाने पर असातावेदनीय कर्मको अनुदीरणा भी न होय यह भी ठीक नहीं है अर्थात् भगवान् के असातावेदनीय कर्म की उदीरणा नहीं है । आहार के देखने से भी असातावेदनीय कर्म की उदीरणा द्वारा भूख लगती है । आहार को देखे विना असातवेंदनीय की उदीरणा नहीं है यों पूर्वोक्त संपूर्ण सामग्री से भूख उपजती है । उस मोहोदय, असद्वेद्य उदय, भूख के मारे पेट का पीठ में घुस जाना, आहार की अभिलाषा, भोजन का उपयोग, आहार का लोलुपतापूर्ण देखना यो सामग्री की विकलता हो जाने पर योगसहित केवलज्ञानी के किस प्रकार भूख लगने की बाधा प्रकट हो सकती है ? अर्थात् नहीं । इसी प्रकार सयोगकेवली के पिपासा, दंशमशक, आदि परीषदें भी युक्ति से घटित नहीं होती हैं । भावार्थ - सामग्री नहीं मिलने से भगवान् के कोई भी परीषह युक्त नहीं है । क्षुधा के विषय में गोम्मटसार की गाथा यों है -
आहारदंसणेण य तस्सुवजोगेण ओमकोठाये,
सादिरुदीरणाये हवदि हु आहारसण्णा हु ।
आहार के देखने से, आहार खाना प्रारम्भ कर देने से, पेट खाली होने से और
अतरंग में असातावेदनीय की उदीरणा से आहारसंज्ञा उपजती है ।