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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
___ इस सूत्र में चौदह ऐसी विशेष संख्या का निरूपण कर देने से इनके अतिरिक्त अन्य माठ परीषहों का अभाव समझा जाता है। यहाँ कोई आक्षेप उठाता है कि ग्यारहवें गुणस्थान में सम्पूर्ण मोहनीय कर्म का उपशम हो जाने से और बारहवे में मोहनीय का क्षय हो जाने से भले ही मोहनीय को उदय मान कर हो जानेवाली नग्नता, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, सत्कारपुरस्कार, अदर्शन ये आठ परोषहें नहीं होय, किन्तु सूक्ष्मसपिराय नाम के दशमे गुणस्थान में सूक्ष्मलोभ नामक मोह का उदय बना रहने से क्षुधा आदि चौदह ही परीषहों का नियम नहीं बन सकता है। ग्रन्थकार कहते हैं यह तो नहीं कहना। क्योंकि वहां दशमे गुणस्थान में उस लोभसंज्वलन की केवल सत्ता है। कोई कार्यकारी नहीं है । अतः दशमा गुणस्थान भी ग्यारहवे, बारहवें गुणस्थानों के समान ही हैं।
पुनः किसी का आक्षेप है कि इस ही कारण से यानी दशमे में मोहका मन्द उदय होने से और ग्यारहमे, बारहवे, में मन्द उदय का भी अभाव हो जाने से क्षुधा आदिक चौदह परीषहों का भी अभाव हो जावेगा। मोहनीय का बल नहीं पाकर वेदनीय कर्म भी कोरा सत्ता मात्र है, कुछ फल नहीं दे सकता है । ग्रन्थकार कहते हैं यह तो न कहना । क्योंकि दशमे, ग्यारहमे, बारहवें गुणस्थानों में क्षुधा आदि की विशेष बाधाओं का विराम होने पर भी उन बाधाओं का सद्भाव शक्तिरूप से प्रकट होकर आक्रमण कर रहा है जैसे कि सर्वार्थसिद्धि विमान में निवास कर रहे एक भवतारी अहमिन्द्र भले ही सातमी माधवीनरक पृथ्वी में गमन नहीं करते हैं, किन्तु सातमे नरकतक गमन करने की उनकी सामर्थ्य है, कार्यरूप में वहां नहीं जाने से कोई उनकी सामर्थ्य नष्ट नहीं हो जाती है। इसी प्रकार उक्त तीन गुणस्थानों में ज्ञानावरण, अन्तराय और असातावेदनीय कर्मों का उदय विद्यमान हैं । अतः परीषहों को नाममात्र कथन करना युक्तिसंगत है। आत्मीय शुद्धावस्था में संलग्न बने रहने के कारण प्रायः परीषहों का वेदन नहीं होने पाता है।
कथं पुन: सूक्ष्मसांपराये गुणे तद्वति वा छद्मस्थवीतरागे चानुत्पन्नकेवलज्ञाने क्षीणोपशान्तमोहे चतुर्दशैव परोषहाः क्षुदादय इति प्रतिपादयन्नाहः
यहां कोई पुनः तर्क उठाता है कि सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान में अथवा उस दशमे गुणस्थान वाले मुनि में तथा जिनको केवलज्ञान तो उत्पन्न नहीं हुआ किन्तु मोहनीय कर्म क्षय और उपशान्ति को प्राप्त हो चुका है ऐसे छद्मस्थ वीतराग नामक बारहमे, ग्यारहमे गुणस्थान वर्ती मुनि में भला क्षुधा आदिक चौदह ही परोषहें किस प्रकार युक्तिघटित