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नवमोऽध्यायः
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क्षुधा आदिक परोषहें सहन करने योग्य हैं ( हेतु ) अर्थात् संवर तत्त्व और आत्मतत्त्व की विशुद्धि के लिये सहन करने योग्य वाईस परीषहों का सूत्रकार ने बहुत बढ़िया निर्णय कर दिया है।
ते क्षुदादयो हि द्वाविंशतिपरीषहाः परिषोढव्याः प्रोक्ताः सूत्रकारैरसंशयं तेषां विशुद्धयर्थं परिषह्यत्वात् तत एवान्वर्था संज्ञा महती कृता परीषहा इत्युक्तम् ।
वे क्षुधा आदिक बाईस परीषहें निश्चय से सहन करने योग्य हैं यों सूत्रकार उमास्वामी महाराज करके इस सूत्र और पूर्व सूत्र में निःसंशय होकर बहुत अच्छा निरूपण किया जा चुका है, जब कि उन क्षुधा आदिकों को विशुद्धि के लिये परितः सह्यपना नियत हैं, तिस ही कारण अपने वाच्यार्थ को घटित कर रही "परीषह" इतनी बडी संज्ञा की गई है | यह रहस्य ग्रन्थकार द्वारा खोलकर कहा जा चुका है ।
अथ कस्मिन् गुरणस्थाने कियन्तः संभवन्तीत्याहः -
अब इसके अनन्तर कोई जिज्ञासु विनीत शि उन करुणासागर सूत्रकार महाराज के सन्मुख प्रश्न करता है कि किस किस गुणस्थान में कितनो कितनी परीषहें संभवती हैं ? बताओ। ऐसा विनम्प्र जिज्ञासु का उपरोध उपस्थित हो जाने पर श्री उमास्वामी महाराज इस अग्रिम सूत्र को कह रहे हैं ।
सूक्ष्मसां परायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश ॥ १० ॥
अत्यन्त सूक्ष्म हो चुके संज्वलन लोभ के उदय को धार रहे सूक्ष्मसां पराम नामक दशमे गुणस्थान में क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, प्रज्ञा, और अज्ञान ये चौदह परीषहें सम्भव जाती हैं । तथा छद्म से संसार में ठहर रहे किन्तु सर्वथा रागरहित हो रहे ग्यारहमे और बारहमे गुणस्थान
भी उक्त चौदह परीषहें सम्भव रही हैं, जिनका कि विजय दशमे, ग्यारहमे, बारहवें गुणस्थान वालों को यत्न द्वारा करना पडता है ।
चतुर्दशवचनादन्यस्याभाव: । सूक्ष्मसाम्पराये "नियमानुपपत्तिर्मोहोदयादिति चेन्न, सन्मात्रत्वात् तत्र तस्य । अत एव परीषहाभाव इति चेन्न, बाधाविशेषोपरमे तद्भावस्याविर ध्यासितत्वात् सर्वार्थसिद्धस्य सप्तमनरकपर्यन्तगमनसामर्थ्यवत् ।