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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
पडा । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि व्यभिचार दोष रहित हो रहे श्रद्धानस्वरूप दर्शन का ही ग्रहण किया जाना अदर्शन में पडे हुये दर्शन का प्रयोजन है मति आदिक पांचो ज्ञानों के साथ व्यभि वार रहित होकर श्रद्धान नाम का दर्शन लग रहा है किन्तु आलोचन नाम का दर्शन तो श्रुतनान और मनःपर्यय ज्ञान के पूर्व में नहीं है। यों दोनों ज्ञान मतिज्ञानपूर्वक हैं। अतः यहां अव्यभिवारो श्रद्वान का ग्रहण किया जाय, आलोचन फा नहीं। आलोवन का अभाव कोई सहन करने योग्य परोषह नहीं है। फिर कोई आक्षेप करता है कि आपने श्रद्वान अर्थ को मनमानी पकड लिया है। मनोरथों की केवल चारों ओरसे यह कल्यता है । अत: दर्शन का अर्थ श्रद्वान लेता प्रामाणिक नहीं है । ग्रन्यकार कहते हैं यह तो न कहता। क्योंकि भविष में कहे जाने वाले कारणों को सामथ्र्य से दर्शन का अर्थ श्रद्वान हो ठोक है । "दर्शन मोहान्तराययोरदर्शनालाभौ" इस सूत्र द्वारा अदर्शन परीषह का कारण दर्शन मोहनीय कर्म कहा गया है । तब तो श्रद्धान का अभाव ही अदर्शन हुआ।
पुनः कोई अर्थपण्डिा अपना पाण्डित्य दिखलाता है कि अज्ञान, अदर्शन परोषहों के समान अवधिदर्शन न होने, केवल दर्शन न होने, परिहारविशुद्धि न होने आदि सहन करने योग्य अवधिदर्शन नहीं होना आदि परोषहों का भी पृथक् निरूपण करना चाहिये । बाईस के स्थान पर यदि तीस, चालोस, परीषह गिना दी जाय तो छात्रों को व्युत्पत्ति बढेगी। कोई टोटा नहीं पड जायगा। ग्रन्य कार कहते हैं, यह तो नहीं कहना । क्योंकि अवधिज्ञान, केवलज्ञान आदि के नहीं होने पर उनके साथी हो रहे अवधिदर्शन आदि का भी अभाव हो जाता है। अत: इन सब का अज्ञान परीषह में ही घेर कर अंतर्भाव कर दिया जाता है। इस प्रकार सहन करने योग्य बाईस परोपहों के जय से मुनि के महान संवर होता रहता है।
यहाँ कोई जिज्ञासु पुरुष प्रश्न करता है कि क्षुधादिक परीषहों को सब ओर से सहन करने योग्यपने को सिद्धि किस प्रकार हो जाती है ? बताओ। ऐसी दशा में ग्रन्यकार इस अग्रिम वार्तिक को कह रहे हैं।
ते च चुदादयः प्रोक्ता द्वाविंशतिरसंशयं ।
परिषद्यतया तेषां तत्व सिद्धिविशुद्धये ॥१॥
इस उक्त सूत्र में वे क्षुधा आदिक परोषहें (पक्ष) बहुत अच्छी युक्तियों से निःसंशय होकर बाईस कह दो गई हैं (साध्य) कारण कि तत्त्वसिद्धि को विशुद्धि के लिये