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नवमोऽध्यायः
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मान, प्रतिष्ठा, बड़ाई या आत्मगौरव प्राप्त होने में अथवा अपमान याना तिरस्कार हो जाने में तुल्यमनोवृत्ति को रखने वाले संयमो के सत्कार पुरस्कार को अभि. लाषा नहीं रखना स्वरूप सत्कारपुरस्कारपरोषहजय है। किसी श्रेष्ठ पुरुष का पूजा करना, प्रशंसा करना सत्कार है प्रतिष्ठित क्रिया और आरम्भ, सभा, आदि में उसको प्रधान बना कर आगे कर देना अयवा सब के पहले आमंत्रित करमा पुरस्कार है। प्रकृष्ट ज्ञान को अधिकता हो जाने पर उत्पन्न हुये मद का निराकरण करते रहना प्रज्ञाविजय है। तुच्छ प्रकृति के जीवों को यौवन, धन, ज्ञानोत्कष, प्रभुता का अवसर उपस्थित हो जाने पर अवश्य मद आ जाता है । महान् पुरुष अपनी गम्भीरता द्वारा उस मद के अवलेप का समूलचूल प्रत्याख्यान कर देते हैं । यह मुनि अज्ञ है, कुछ नही जानता है, इत्यादिक अज्ञता अपमान के आक्षेप वचनों को जो मुनि सह रहा है। प्रयत्न करने पर भी ज्ञानातिशय की नहीं प्राप्ति होते सन्ते ज्ञान की अभिलाषाओं को जो सह रहा है, ज्ञानातिशय के नहीं उपजने को मन में नहीं ला रहा है उसके अज्ञानपरीषहविजय हैं।
प्रवज्याद्यनर्थकत्वासमाधानमदर्शनसहनं । श्रद्धानालोचनग्रहणमविशेषादिति चेन्न. अव्यभिचारदर्शनार्थत्गत् । मनोरथपरिकल्पनामात्रमिति चेन्न, वक्ष्यमारणकारणसाम
र्थ्यात् । अवध्यादिदर्शनोपसख्यानमिति चेन्न, अवधिज्ञानाद्यभावे तत्सहचरितदर्शनाभावादज्ञानपरीषहावरोधात् । ननु क्षुदादीनां परिसोढव्यत्वसिद्धिः कथमित्याह -
बडे बड़े दुःखकर तप मैंने किये, पञ्चपरमेष्ठियों की बहुत दिनों तक आराधना भी की, बडे बडे ग्रन्थों का अध्ययन करते हुये बूढा हो गया, फिर भी मुझे स्वात्मोपलब्धि नामक ज्ञान का अतिशय प्राप्त नहीं हुआ। महान् उपवास आदि को करनेवालों के पंचाश्चर्य या प्रतिहार्य होते हैं, यह व्यर्थ बकवाद है. झूठी बात है, दीक्षा लेने का कोई प्रयोजन नहीं निकला, व्रतों का पालन निष्फल हैं अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन कोरो धूर्त विडम्बना है, जैनधर्म से स्वाधीनता प्राप्त नहीं हो सकती है, दर्शन, पूजन, ध्यान, कोरे ढोंग हैं इत्यादिक रूप से निकृष्ट विचारों में चित्त को नहीं समाहित करना अदर्शनसहन है। मुनि के निर्मल सम्यग्दर्शन नहीं होनेपर यह परीषह सताती है जिसका कि मुनि को विजय करना पडता है।
यहाँ को ई आक्षेप उठाता है कि दर्शन शब्द का पारिभाषिक अर्थ श्रद्धान करना है और यौगिक अर्थ आलोचन करना है । चक्षुर्दर्शन आदि में भी सत्ता का आलोचन होना माना गया है। अतः यहां कोई विशेषता का सूचक न होने से श्रद्धान और आलोचन दोनों का ग्रहण हो जावेगा, तब तो अश्रद्धान के समान भनालोचन परीपहजय भी आवश्यक