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तत्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
अनिष्टवचनसहनमाक्रोशपरीषहजयः, मारकेष्वमर्षापोहनभावनं वधमर्षणं । प्राणात्ययेप्याहारादिषु दीनाभिधाननिवृत्तिर्याचनाविजयः । अलाभेपि लाभवत्संतुष्टस्यालाभविजयः। नानाव्याधिप्रतीकारानपेक्षत्वं रोगसहनं । तरणादिनिमित्तवेदनायां मनसोऽप्रणिधानं तृरणस्पर्शजयः । स्वपरांगमलोपचयापचयसंकल्पाभावो मलधारणं । केशखेदसहनोपसंख्यानमिति चेन्न, मलषहावरोधात् ।
तीव्रमिथ्यादृष्टि म्लेच्छ पापी जनों के अनिष्टवचनों को सह लेना आक्रोशपरीषहजय है। मारनेवाले अधम जीवों में क्रोध करने की निवृत्ति भावते रहना वधमर्षण है। प्राणों के वियोग हो जाने का प्रकरण उपस्थित हो जाने पर भी आहार, वसतिका, औषध, आदि में दीनता के वचन बोलने की निवृत्ति रखना याचनाविजय है । भिक्षा आदि का लाभ नहीं होने पर भी लाभ हुये के समान संतोष को प्राप्त हो रहे संयमी के अलाभपरीषह विजय होता है । वात, पित्त कफों की प्रकृति को निमित्त पाकर उत्पन्न हुई अनेक शारीरिक व्याधियों के निराकरणार्थ किसी भी औषधि, परिचर्या, आदि को अपेक्षा न रखना रोगसहननाम का परीषहजय है। सूखे तृण, काँटे, कंकर, कत्तलें आदि के व्यथन को निमित्त पाकर हुई शारीरिक दुःखवेदना में मन का एकाग्र नहीं लगाये रहना तृणस्पर्शपरीषहजय है। अपने शरीर और परकीय शरीर के मलों की वृद्धि या हानि में ग्लानिवर्द्धक मानसिक विचार नहीं करना मलधारण कहा जाता है । यहाँ कोई शंका करता है कि केशों का लोंच करने में अथवा उनको नहीं संस्कार (संभाल) कर रखने में महान् खेद पैदा होता है अतः " केशखेदसहन” नामक परीषह भी मलधारण परीषह के निकट गिननी चाहिये। सूत्रकार की दृष्टि को वार्तिककार संभाल लेते है । महान् पुरुषों की दृष्टि को महान् पुरुष ही समझते हैं । उपसंख्यान पद का यह तात्पर्य है । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि मलधारण परीषह में इस केशखेदसहन का अन्तर्भाव हो जाता है केश भी एक प्रकार का मल है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय या वैष्णवों के यहां जैसे केशों को या संख, सीप को पवित्र माना है, वैसा दिगम्बरों के यहां इनको शुद्ध नहीं माना गया है, अनेक त्रस जीवों की इन में सतत उत्पत्ति होती रहती है। सूत्रकार महोदय निपुण प्रज्ञावान् हैं । उनके ग्रन्थ में कोई त्रुटि नहीं है।
__ मानापमानयोस्तुल्यमनसः सत्कारपुरस्कारानभिलाषः । प्रज्ञपिलेपनिरासः प्रज्ञाविजयः । अज्ञानावमानज्ञानाभिलाषसहनमज्ञानपरीषहजयः ।