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नवमोऽध्यायः
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हो रही हैं ? बताओ। इस तर्क के समाधान की प्रतिपत्ति को कराते हुये ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिकों को स्पष्ट रीत्या कह रहे हैं।
स्युः सूक्ष्मसापराये च चतुर्दशपरीषहाः। छद्मस्थवीतरागे च ततोऽन्येषामसंभवात् ॥१॥ छद्मस्थवीतरागे हि मोहाभावान्न तत्कृताः । अष्टौ परीषहाः संति तथातोन्ये चतुर्दश ॥२॥ ते सूक्ष्मसांपरायेपि तस्याकिंचित्करत्वतः । सतोपि मोहनीयस्य सूक्ष्मस्येति प्रतीयते ॥३॥ वेदनीयनिमित्तास्ते मा भूवंस्तत एव चेत् । व्यक्तिरूपा न सन्त्येव शक्तिरूपेण तत्र ते ॥४॥ मोहनीयसहायस्य वेदनीयस्य तत्फलं । कवलस्थापि सारा
केवलस्यापि तद्भावेतिप्रसंगो हि दुस्त्यजः ॥ ५॥
उक्त सत्र अनुसार सक्ष्मसांपराय नामक दशमे गुणस्थान में और वीतरागछद्मस्थ नामक ग्यारहमे, बारहवें गुणस्थानों में क्षुधा, पिपासा, आदिक चौदह परीष हो ही होंगी। उन चौदहों से अन्य नग्नता आदिक आठ परीषहों का असंभव हो जाने से चौदह का ही नियम है। छद्मस्थ वीतराग गुणस्थानों में मोह का उदय नहीं होने से उस मोहोदय करके की गई ओठ परीषहें नहीं है।
यहाँ कोई पूर्वोक्त शंका को ही उठाता है कि जिस प्रकार सूक्ष्म सांपरोय में सूक्ष्म मोहनीय के उदय का सद्भाव होने पर भी उस मोह के अकिंचित्कर हो जाने के कारण नग्नता आदि आठ परीषहें जैसे नहीं प्रतीत हो रही हैं उस ही प्रकार उनसे न्यारी वेदनीय को निमित्त पाकर होनेवालीं वे क्षुधा आदि चौदह परीषहे भी तिस ही कारण यानी मोहनीय का बलाधान नहीं होने से नहीं होओ? ऐसा कटाक्ष प्रवर्तने पर ग्रन्थकार समाधान करते हैं कि भले ही व्यक्तिरूप से यानी प्रकट में वे चौदह परीषहें नहीं हैं तथापि उन तीन गुणस्थानों में वे चौदह परीषहें कर्मप्रयुक्त शक्तिरूप करके विद्यमान ही हैं, मोहनीय कर्म की सहायता को प्राप्त हो रहे वेदनीय कर्म का