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तत्त्वार्थश्लोक वातिकालंकारे
प्रत्युत परीषहों से विजित हो जाने वाला आलसी जीव मूर्ख, दरिद्र रह जाता है । यों अविनाभावी हेतु से साध्य की सिद्धि कर दी गई है ।
निर्जरार्थत्वं कथमित्याह ।
अब परीषहजय का दूसरा प्रयोजन कर्मों की निर्जरा होना वोलो किस प्रकार सिद्ध समझा जाय ? बताओ। ऐसी निर्णय करने की इच्छा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार वक्ष्यमाण वार्तिकों को कहते हैं ।
निर्जराकारणत्वं च तपः सिद्धिपरत्वतः, तदभावे तपोलोपान्निर्जरा क्वातिषक्तितः ॥ २ ॥ परिषोढव्यतां प्राप्तास्तस्मादेते परीषहाः, परीषा जयोत्थानामात्रवाणां विरोधतः ॥ ३ ॥
परीषहजय में (पक्ष) निर्जरा का कारणपना विद्यमान है ( साध्य ) तपस्या
की सिद्धि में तत्परता करने वाला होने से ( हेतु ) उन परीषहों का जीतना नहीं होने पर तप का लोप हो जाने से कहां निर्जरा हो सकती है ? विषयों में अत्यन्त आसक्ति के वश होकर परीषहों से आकुलित हो गये मनुष्य के निर्जरा नहीं होने पातो है ( अन्यथानुपपत्ति ) । यदि परीषहों से उद्विग्न हो रहे पुरुष के भी कर्मों की निर्जरा मानी जायगी तो अतिप्रसंग दोष हो जायगा । भूखे प्यासे, पोडित हो रहे व्याकुल तिर्यञ्च, मनुष्यों के भो कर्मों की निर्जरा हो जाना बन बैठेगा, जो कि इष्ट नहीं हैं । तिस कारण उक्त दो प्रयोजनों को साधने वाले होने से ये बाईस परोषहें सब ओर से सहन करने योग्यपनें को प्राप्त हो रही हैं, जैसा कि सूत्रकार ने तव्य प्रत्ययान्त परिषोढव्य पद करके कहा है परीषहजयी पुरुष के संवर होता है । परीषहों के नहीं जीतने पर उठने वाले आस्रवों का विरोध करने वाला होने से परीषहज संवर का कारण है ।
के पुनस्ते परीषहा इत्याहः - सूत्रकार महाराज के सन्मुख फिर यह बताओ कि वे बहुत सी परीषहें महाराज इस अग्रिमसूत्र को कह रहे हैं ।
सी विनीत शिष्य का प्रेश्न है कि महाराज कौन हैं ? ऐसो जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार