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नक्मोऽध्यायः
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अब अनुप्रेक्षाओं के अनन्तर परीषहजय के कथन का प्रस्ताव रख रहे सूत्रकार महाराज सम्पूर्ण परीषहों के सहने को और वे यहाँ किसलिये सहन करने योग्य हैं, इस 'सिद्धान्त के प्रतिपादनार्थ अगले सूत्र को कह रहे हैं।
मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः ॥ ८॥
श्री जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट किये गये मार्ग से च्युत नहीं होने के लिये और निर्जरा के लिये चारों ओर से एक को आदि ले करके उनईस तक सहन करने योग्य जो क्षुधा आदि परिणतियां हैं वे परीषहे हैं।
परीषहा इति महत्त्वादन्वर्थसंज्ञा। प्रकरणात् संवरमार्गप्रतिपत्तिः। तदच्यवनार्थो निर्जरार्थश्च परीषहजयः । तत्र मार्गाच्यवनार्यत्वं कथमस्येत्याह । । संज्ञा वह होनी चाहिये जिससे कि कोई छोटा स्वरूप नहीं हो सके, जैसे कि
जैनेन्द्र व्याकरण में -हस्व, दीर्घ, प्लुतों की प्र, दी, प संज्ञायें हैं बहुव्रीहिसमास की व, स, संज्ञा है, इकारान्त उकारान्त, शब्दों की सु संज्ञा है । इसी प्रकार परीषहों की छोटी संज्ञा होनी चाहिये थी। परन्तु सूत्रकार का परीषह इतनी बडो संज्ञा करने से यही प्रयोजन है कि इस संज्ञा का अर्थ प्रकृति प्रत्ययोंसे ही निकल कर अन्वर्थ हो जाय। सब ओर से सहन करने योग्य परीषह हैं। संवर का प्रकरण चला आ रहा है इस से परीषहों को संवर के मार्ग होने की दृढ प्रतीति हो जाती है। उस मोक्षमार्ग हो रहे संवर के मार्ग से च्युत नहीं होने के लिये और निर्जरा के लिये परीषहजय किया जाता है । यदि यहाँ कोई प्रश्न करे कि उन दो प्रयोजनों में इस परीषहजय का पहला प्रयोजन माना गया मार्ग से च्युत नहीं होना भला किस प्रकार युक्ति सिद्ध है ? बताओ। ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक को कह रहे हैं। --...
मार्गाच्यवनहेतुत्वं परीषहजयस्य सत् । परीपहाजये मार्गच्यवनस्य प्रतीतितः ॥१॥ .
परीषहजय को (पक्ष) जैनमार्ग से च्युत नहीं होने का कारणपना प्रशंसनीय है (साध्य) कारण कि परीषहों के नहीं जीतने पर मार्ग से च्युत हो जाने की प्रतीति होरही है (हेतु)। अर्थात् अध्ययन में या व्यापार करने में अनेक परीषहें आती हैं उनको जीतने वाला पुरुष ही विद्वान् या धनाढय हो जाता है और परीषहों को नहीं जीतनेवाला