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नवमोऽध्यायः
क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ॥६॥
क्षुधा (भूख) प्यास, शीतबाधा, उष्णबाधा, डांस मच्छरों द्वारा पीडित किया जोना, नग्न रहना, अरति, स्त्रियों को बाधा, चलते रहना, नियमित बैठना, कठोरस्थान पर सोना, गालो कुवचन सुनना, शारीरिक वध, माँगना, लाभ नहीं होना, रोग हो जाना, तिनकाकाँटा लग जाना, मलविकार होना, सत्कार पुरस्कार परीषह, विशेष ज्ञानका अभिमान करने की उत्सुकता, अज्ञान और अदर्शन ये बाईप परीषहें हैं। अर्थात् भूख की वेदना को सहकर क्षुधाजन्य बाधा की ओर सर्वथा चिंता न करना क्षुत्परोषहजय है । सम्यग्दृष्टि मुनि के भूख, प्यास आदि की ओर चित्तवृत्ति नहीं जाती है। युधिष्ठर, भोम, अर्जुन, सुकोशल, सुकुमाल मुनीश्वरों को अनेक उपसर्गों या परीषहों का संवेदन ही नहीं हो पाया था। वे केवल आत्मध्यान में लवलोन रहे थे । तभी तो क्षपक श्रेगो या उपशम धेगी का आरोहण संभवता है। अतः सर्वोत्कृष्ट मार्ग तो यही है कि परोषहों का परिज्ञान ही नहीं होय, हाँ, मध्यममार्ग यह भी है कि परोषहां को जान कर समताभावों से सहते हुये स्वानुभव में लीन हो जाना । अतः पुरुषार्थी आत्माका कर्तव्य है कि वह क्षुधा आदि बाधाओं पर जय प्राप्त करे, यों परोषह का पूरा नाम क्षुत्परीषहजय, पिपासावेदनासहन, शीतवेदनासहन, इत्यादि समझ लेना चाहिये अथवा उक्त बाईसों के साथ परीषहजय शब्द जोड़ कर पूरे बाईस नाम बना लिये जाय ।
परीषहा इति सामानाधिकरण्येनाभिसंबन्धो व्यक्तिभेदेपि सामान्यविशेषयोः कथंचिदभेदात् । तेन क्षुषादयो द्वाविंशतिः परीषहाः । तत्र प्रकृष्टक्षुदग्निप्रज्वलने धृत्यंभसोपशमः क्षुज्जयः।
"क्षुधा, पिपासा" को आदि लेकर “अदर्शनानि" पर्यन्त परीषह हैं। यों बाईसों का परोषह इस शब्द के साथ समानअधिकरणपने करके परली ओर संबंध जोड देना चाहिये, व्यक्तिअपेक्षा भेद होने पर भी सामान्य परीषह का और क्षुधा आदि बाईस विशेषों का कथंचित् अभेद हो जाने से समान अधिकरणपना घटित हो जाता हैं। जैसे कि " आर्या म्लेच्छाश्च मनुष्याः " यहाँ हो रहा है । तिस कारण क्षुधा आदिक बाईसों परीषह हैं ऐसे उद्देश्य, विधेय दल सुचारु हैं । विधेय अंश पूर्व सूत्र में पडा है और उद्देश्य दल इस सूत्र में उपात्त है। उन बाईसों में पहिला परोषहजय यों है कि खूब बढ